Saturday, February 23, 2013

आदिमानव

कल शाम
मैनें एक आदिमानव देखा ।

सुना था
आदिमानव
नग्न होता है ।

लम्बे उलझे बाल॰॰॰॰॰॰॰
नंगे पाँव
हाथ में पत्थर की शिला॰॰॰॰॰
गंदे दाँत
देह से बदबू
मुँह में मांस॰॰॰॰॰
प्राचीन सोच
जानवर तासीर
शिकारी प्रवृत्ती
घर की जगह माँद और कंदरा
और उस में भरी
माँस और मदिरा ।

आज
उसे देखा
तो पल भर
मैं धोखा खा ही गया ।

हाथ में मोबाइल
चमकते दाँत
बदन से खुशबू
मुँह में सिग्रेट॰॰॰॰॰

आज तो धोखा खा ही जाता
आदिमानव पहचान न पाता
अगर उसके पास न जाता
बहुत करीब से भाँप ना पाता॰॰॰॰

कपड़ों तले नग्न चरित्र
खोखला जीवन, सोच विचित्र
खुश्बू ढके मरे विचार
हँसी से दबी चीख पुकार ।

प्राचीन सोच
जानवर तासीर
शिकारी प्रवृत्ती॰॰॰॰

घर ही बना माँद और कंदरा
उस में भरी
माँस और मदिरा ।

कल शाम
मैनें आदिमानव देखा ।

सही सुना था
आदिमानव
नग्न होता है ।

बस स्टाप


मत डराओ मुझे
धरती के खत्म होने
की खबरों से॰॰॰

धूमकेतू के टकराने
जीवन खत्म होने की बातों से॰॰॰

प्रलय के आने
और शीत युग की शुरुआत से॰॰॰

मैं नहीं डरता
फर्क नहीं पड़ता
मुझे ।

बस ५ मिनट पहले
बता देना मुझे,
चंद कागज़
एक कलम
झोले में डाल
नंगे पाँव
पास के चौराहे
के बस स्टाप पर
तैयार मिलूँगा ।

उंगली


नन्हे बाएँ हाथ से
सड़क के दरिया को लाँघते
चौराहे पर
मगरमच्छ की तरह
उसकी ओर बढ़ते
कारों ट्रकों और बसों के झुण्ड को
उसनें रोकने की बहुत कोशिश की
॰॰॰॰॰वो नहीं रुके।

डरी
सहमी सी
वो बच्ची
रो ही पड़ती,
लाल बत्ती से झुंझलाई गुस्साई गाड़ियों
से घबरा ही जाती
अगर उसके
दायें हाथ में
उसके प्यारे पापा
के हाथ की
वो छोटी सी
उंगली न होती ।

वादा

"आऊँगी
ज़रुर
एक दिन,
बैठूँगी
तापूँगी आग
तुम्हारे साथ
देर रात ।

कहूँगी बातें
दिल खोलकर
सालों की
करुँगी यादें ताज़ा
बताऊँगी राज़
मन के
अनकहे
अनसुने ।

खाऊँगी
तुम्हारे हाथों से
जो खिलाओगे
पिलाओगे ।

देखूँगी छत को
बंद आँखों से
रात भर
लेट कर
जहाँ लिटाओगे ।

और सुनूँगी
खामोशी से
चुपचाप जो कहोगे
बैठकर बगल में
सारी रात
कुरेदते
यादों की राख़ ।

आऊँगी
ज़रुर
एक दिन,
बैठूँगी
तापूँगी आग
तुम्हारे साथ
देर रात,
मगर आज नहीं ।

आज भी
हूँ जल्दी में,
कहीं जाना है
कुछ काम है
ज़रूरी
बाकी ।"

सुबह सुबह
शहर के बाहर वाली सड़क पर
अंतिम धाम
के गेट
के सामने से
गुज़रते हुए
मेरे अंदर बैठे
किसी ने
किसी से
पीछे मुड़
कहा
मैंनें सुना ।

Tuesday, February 12, 2013

वहाँ


सुबह के ४ बजे थे
कड़ाके की ठण्ड थी
स्याह रात
अभी कुछ बाकी थी।

ठण्डा आसमान ओढ़े
परिंदे और इंसान
अभी सो रहे थे।

ज़रुरी था
सो मुझे जागना पड़ा
रजाई से निकल

मुँह हाथ धोकर
मुँह अंधेरे
घर से निकल

गाड़ी में बैठ
पहाड़ के पैरों पैरों
वादी के कंधों पर
चलना पड़ा ।

काली ढाँक से गुज़रा
तो ख़्याल आया
रेडियो की तरंगें
दिखाई नहीं पड़ती थीं
पर वहाँ होंगी ज़रूर॰॰॰

मोबाइल की लहरें
दिखाई नहीं देती थीं
पर वहाँ होंगी ज़रूर॰॰॰

भगवान भी
अंधेरे मैं
दिखते नहीं थे
पर होंगे ज़रूर॰॰॰॰

और फिर याद आया
सड़क किनारे
स्कूल के रास्ते में
ढाँक के नीचे बनी
दो नन्हीं बच्चियों की समाधि पर
वही दोनों बच्चियाँ
स्कूल ड्रैस पहने
बस्ता लिये
तैयार हो
सुबह होनें
और घण्टी बजने के इंतज़ार में
बैठी दिखती नहीं थीं
पर होंगी ज़रूर ।