Saturday, April 20, 2013

वापसी

खुले बाल मेरे
फड़फड़ा रहे
ठण्डी चीखती हवाओं में
इस आसमानी चोटी पर
जैसे लहराता
उतावले जीवन का
दृढ़ ध्वज ।

आँखें हैं बंद
चेहरा है खुला
पूरा ।

धरती के ऊपर से
गुज़रते
उड़ते
पंजों में से उसके
मैं जो फिसल गिरा था कभी
गहरे जंगल में,

भटक
निराश
हताश
उदास हो
चढ़ आया हूँ
इस शिखर पर
इंतज़ार में उसी के॰॰॰॰॰

वो आए
ले जाये मुझे दबोच
अपने खोये शिकार की तरह।