Monday, March 31, 2014

ख़्वाहिश

गर
कर दूँ
हर
इंतज़ाम
तेरी
ख़्वाहिशों
का मैं,

इतना बता
रही ज़िन्दगी
किस
ख़्वाहिश
को
जीयेगा?

परतें

देख ले
दिखा ले
भर ले
सजा ले,
हो ले खुश
इतरा ले,
कर ले
गुमान
जी भर
तन पर,
हक़ है
तुझे ।

और
फिर
यदि
मिले
ज़रा भी
होश की
मोहलत
खोल भी तो सही
ये तोहफ़ा,
उतार
चमकती परतें,
देख
भेजा है
क्या
क्यों
किसने
किसे ।

Sunday, March 30, 2014

प्रसाद

माँ
आपका प्रसाद
पहुँचा
जिव्हा तक,
रोम रोम
झिझुर गया!

आपके
हर इस
रोम को
प्रणाम |

करिये
दूर
बस
जो
ज़रा सी है
कड़वाहट
पीछे
मुहँ में,
कहिए
भक्तों को
पकायें
आइंदा
सिर्फ़
ईमान के तेल में|

भीड़

भीड़
जिस्मों की
रही थी
तेज़ तेज़
चल
सड़कों पर
जल्दी में
कुछ काम से
जानें क्या
कहाँ
क्यों !

रूहें
उनकी
थी
आ रहीं
मस्ती में
पीछे
धीरे धीरे
मिलते
खुलूस से
आपस में
गले

कसूर

किया था
क्या कसूर
उस
दाने
आखिरी नें,
आपनें जो
छोड़ दिया।

टूट के
आया था
जिस शाख़ से
करके ज़िद
बुझानें
आपके
उदर की
आग,
क्या भेजे
घर
पैग़ाम
की मायूस हुआ?

मोक्ष

एक हाथ की
दूरी पर है
मोक्ष,
जब कहोगे
मिल जाएगा।

माँगना
बुलाना
उठाना
मगर
तभी
जब
हो ज़रूरत,
कमरे में
सजाने
या
अलमारी में
रखनें को
मत लेना।

नज़ाकत

सीख लूँ
अब
तौर तरीके
नज़ाकत के,
कि हसरतें
फ़ाकामस्ती की
जवान हो गयीं हैं।

सावन

खड़ा है
एक तनें पर
पतझड़ के
अकेलेपन में
वो,
उठाए
हजारों हाथों से
अपना
आसमान,
करते
शुक्रिया
पिछले सावन का,
माँगता
झड़े पत्तों
की मुक्ति,
करता
प्रार्थना
पानें की
अगली
रुत के
फल,
और
उनको खानें
सलामत
ज़िन्दा
दुनिया ।

Saturday, March 29, 2014

लौ

पेट की
आग से
जब जब
जले हैं
इबादत के
दीये,
दीयों की
लौ से
पके हैं
निवाले
रूह के

ख़त

नहीं मिला
अभी
वो
ख़त ए
ख़ुसूस*           (*ख़ास,विशेष)
लिखा है
जिसमें
"बस
इतना
बचे हो
और" ।

यकीन
दिलाये
जो
कोई
कि
मिलेगा
भी नहीं,
तो
जीऊँ
मुर्दादिली
से मैं |

Friday, March 28, 2014

जन्मदिन

छेड़ती है
रात
हर रात
मुझे
"देख
कुछ भी नहीं
बचा”
कहकर,

फिर
सुबह सुबह
हर सुबह,
मेरे जन्मदिन
की तरह,
खींच कर
अँधेरे की
चादर
दफ़्फ़तन*                  (*अचानक)
"लो
सब कुछ है
बचा”
चूमकर
कहती है!

अकेलापन

काट लीजिये आज की रात इस जुगनूँ के सहारे
सितारों के आसमान में ये भी कब से अकेला था

बाग

आपका
जहाँ
अभी
बाग़े फ़िरदौस*     (*जन्नत का बागीचा)
नहीं है,
क्योंकि
आपकी
कलियों पे
अभी
ओस नहीं है।

हाल

गाय
और माता
का दूध
भूल गया,
छोड़ दिया
दोनों को
रहे खून
रास्ते पर
अपनें हाल

कूआँ

इन्सां
तेरे भीतर
का कूआँ
आवाजों से
है लबरेज़*           (* लबालब)
किस कदर

गूँजनें
को
कुछ भी
जगह नहीं,
डूबनें को
अथाह**              (**बेहिसाब)
समन्दर !

सलाम

जिससे डरते हो
उसे ही
सलाम
किसी और का
कुछ और
कुछ ज़्यादा
देते हो|

लगाते हो
लत
सजदे की
इस कदर,
उसी के
जूते को
हर दर
हर मुकाम
पाते हो|

करते हो
जिससे प्यार,
नहीं डरते जिससे
सिरे से
उसे ही
दरकिनार करते हो|

चाहता है
जो तुम्हें
उसे देखते भी नहीं,
टेढ़ी है
जो नजर
उसी से
चार करते हो!

सुनते हो
उसी की
जो करता है
स्वाँग
न सुनने का,
तरसता है
सुनने को
जो
तुम्हारी
हर आवाज़
कहाँ
कान धरते हो!

करे
तुमसे
कैसा सलूक,
बताकर
आईनें को
खुद ही
खराब करते हो

नादानी

शीर्षासन में खड़ी है दुनिया
शवासन की बारी है
पद्मासन को समझ न पाई
नादानी लाफ़ानी* है।

*immortal

राज़ी

हाँ राज़ी हूँ
लौटनें को
तेरी
आगोश में,
बस
उसी के
विस्माद से
विस्मित होना
बाक़ी है।

गाल

आँखें होती तो रो लेती कायनात
करुणा ही से हर गाल को भिगोया उसनें

Thursday, March 27, 2014

खुशी

हर शै हर ज़र्रा तेरा गीला गीला सा है
कुदरत बता क्या तेरे आँसू ख़ुशी के हैं?

साह

जदों
कोई
मरदा
अत्त दा दुखी
यकीनी
भटकदी
ओह दी
रूह।

पर
जे कोई
जाँदा
रज्ज के सुखी
बणदा
आसमाने
चानण दा
खू ।

किवें
छड्डाँ
रोणा,
किवें
लवां
साह
ते जीवां?

या
छड्डाँ
जीण
मरण
दा चा,

प्यार दे कासे
रज रज
पीवाँ ।

बाँसुरी

मेरे ईश्वर
एक दिन के लिए
दुनिया की
हर आवाज़
हटा दे,
गूँजनें दे
सन्नाटों की
नसीहतें
ज़हनों में
होश आने दे।

सोचनें दे
सबको
जो
कहते
करते
चीखते थे,
थमनें दे
गले की
बाँसुरी में
हवा,
साँसों में
संगीत आनें दे।

बाइक

पापा
जब जब
बैठता हूँ
आपकी बाइक पर
बड़ा अच्छा लगता है।

लगता है
आप पीछे ही
हो बैठे
मुझे पकड़े
देखते।

रखता हूँ
जब
बस हाथ भर
हैंडल पर
लगता है
दायाँ हाथ
दबा
घुमा
रफ़्तार बढ़ाते हो।

रहते हो
पकड़े
पक्का
सब कुछ
निगाह रखते हो।

लेते हो
जब साँस
मेरे कंधों पर
धड़कनें मेरे
सीने में
बढ़ाते हो,
चलाता हूँ
शान और
ज़िम्मेदारी से
होकर चौकन्ना
आपको
दिखाता हूँ।

बाकी थी
कब से
जो तमन्ना
कि
घूमता
कभी
आपके साथ,
होती है पूरी
अब
हर बार
जब जब
बैठता हूँ
आपकी
बाइक पर।

Wednesday, March 26, 2014

सुकून

सुकून से रहना उनकी फितरत में न था
चैन में उन्हें बड़ी बेचैनी सी थी

चीख

बोलता है
पैसा
जानता हूँ,
मगर
चीखता है
क्यों
कोई
बताये मुझे!

इल्तेजा

आप ही आमादा थे ख़ुदकुशी को
ज़िन्दगी नें तो ग़ालिबन* इल्तेजा की थी

*सम्भवत:

तीली

अदना जान ही तो है, जाये तो जाये, क्या ग़म है,
तीली राख़ हो तो हो, आतिशे बयाबाँ उठे क्या कम है

रिवायत

रहा उसका मुरीद ज़रूर, बस इबादत छोड़ दी
था महँगा बड़ा वो शौक, रिवायत तोड़ दी

घंटी

बजाई सारे ख़ुदाओं को एक सी घंटी
किसको कितनी सुनी, ख़ुदा जानें ।

हसरत

बनाया था आपको ख़ुदा बड़ी हसरतों से
आपकी खुदाई नें बाखुदा बड़ा मायूस किया।

खिड़कियाँ

बैठा हूँ
आँखों की
खिड़कियो में
कहीं,

दिखती है
दुनिया
एक तरफ़,
सामनें,
बाहर

और पीछे
नीचे
गहरे अँधेरे
है
कहीं
एक और दुनिया
पुकारते
मेरा नाम
दिन भर
कई बार,

करती
मुझ पर
झूठा दावा,

बुलाती
खींचती
मुझे
गूँजकर।

जाऊँ किधर?

कूदूँ बाहर
या फिसल जाऊँ
भीतर?

उड़ जाऊँ
या
कर दूँ
समर्पण?

या
बैठा रहूँ
यहीं
आज़ाद मुंडेर
देखता
दोनों दुनिया!

Tuesday, March 25, 2014

परतें

सौ सालों
से जो
ढूँढता है
खोया वक्त
पेरिस का
आसमान,
देता है
आवाज़ें
दबा दबा
पेंट की
दर्जनों
परतों में
आइफ़ल टावर
से

Eiffel tower was built in 1887-89
and is painted once every 7 years
Entire landscape around it has changed several times in last 125+ years

फ़व्वारा

जो जो
जब जब भी
उठा
ज़मीं से
मिट्टी के फव्वारे सा
देह बन,
गिरा
देर सवेर
वहीं
या कहीं,
कुछ बहा
और
रिस गया
नीचे
वापिस
फूटनें
फिर
कभी
कहीं
आधा
अधूरा
या पूरा!

छोड़
वक्त
पीछे
ऊपर
मंडराता
वहीं
तितली सा
विचलित
करता इंतज़ार
युगों लम्बा

Monday, March 24, 2014

सुबह

सूरज के
पिछली गली
से
घूम
लौट आनें
को ही
सुबह
कैसे
कह दूँ,
मेरी दुनिया
भी
कुछ पलटे
तो सवेरा
समझूँ।

पूरब से
जो घुली है
कुछ रात की
स्याही
मेरी निराशा
की भी
पौ फटे
तो उजाला समझूँ।

तारे हैं
सब डूब चुके,
चाँद के कदम भी
दहलीज़ पर हैं,
मेरे आसमानों
से भी
बादल उतरें
और
मैं निकलूँ।

मस्जिद से
जो उठी है
अज़ान की आवाज़
मेरा रोम रोम
भी झुके
तो नमाज़ समझूँ।

चिड़ियाँ तो
निकल आईं
घोंसलों से
चहचहाती
मेरी खिड़की,
मेरा दिल भी
फड़फड़ाए
कुछ गाये
तो
ज़िन्दा समझूँ।

Sunday, March 23, 2014

तस्वीर

बच्चो
आज
अख़बार में
अपनीं तस्वीर
देखी,
तुम्हारा पैगाम पढ़ा,
अच्छा लगा।

हमेशा से
ख्वाहिश थी
देखनें की
ख़ुद को
सुर्खियों में
चलो
यही
सही।

देख ले
आज
दुनिया
कि
मैं याद हूँ
तुम्हें
आज भी
कितना...

अच्छा लगा....

बस
अगले बरस
पन्ना तीसरा
और
इश्तहार
बड़ा रखना,
छपवाना
कारोबारों का भी नाम,
फ़ोन पता
सब लिखना।

Saturday, March 22, 2014

कैसे

जब आती है
आखिरी बार
मिलनें
कैसे आती है?

आती है
उछलते
भागते
नाचते
या
हया को
दबे पाँव
लाती है!

कैसे
आती है?

आती है
आधी रात
छुपते
छुपाते
या
दिन उजाले
सामनें सबके,
आती है
उसके
आनें की
आहट
या
उतार वो
पाज़ेब
आती है!

रूकती
छिपती है
कहीं
किसी
दम की चिलमन,
खड़काती है
दरवाज़ा
या अन्दर आ
पीछे से
ठंडे
हाथों
आँख मिचोती है?

कैसे आती है?

कहती है
क्या,
कानों में
बताती है,
देती है
कुछ
तैयारी का
वक्त
या
तैयार आती है?

क्या
दिखाती
सुनाती है
आँखों की पुतलिओं
कानों के पर्दों को,
देह की चादर पे
क्यों सहलाती है!

थामती है
हाथ
जब प्यार से
बार आखिरी
बाहर लाती है
कहलवाती है
अलविदा
जहाँ को
कैसे,
कैसे समझाती है।

करती है
क्या क्या
झूठे वादे
दिल बहलाती है,
बुझाती है
कैसे
आँखों के दीये
कैसे फूँक से
सपनें सुलाती है!

जब
जाती है
बार आखिरी
मेरी
जान
कैसे जाती।

Friday, March 21, 2014

अकेला

आसमानों के
झुण्ड में
वो धरती
का गोला
अजीब था,
अकेला
टंगा था
कोने में
उल्टा,
उसका
नसीब था

बच्ची

गाय की बछिया
और वो बच्ची
चरती
चराती हैं,
न वो पढ़ पाई
न वो
बस जीवन
गुज़ारती हैं।

गूँज

मुस्तकबिल है मौजूद माज़ी से पेश्तर
माज़ी गूँजता है मुस्तकबिल में सदियों से

वजूद

जो कहते हैं वो उसपे न जा
कहता है जो उनका वजूद,उसे सुन

सज़ा

समझते रहे जिस काम को सज़ा, निकला फर्ज़
फर्ज़ के रस्ते चलते वो सब सज़ायाफ़्ता निकले

जूते

जूते आपके
देखकर
पीले
आई है
याद
मुझे
पीली पट्टी
की वो टैक्सी,
हो
न हो
लगाएंगे
आप भी
हुज़ूर
बहुतों को
पार
वसूलकर
कीमत

सैलाब

टूटा है
अन्दर
आज
कुछ
ज़रूर,
इतनी जोर से
जो
सन्नाटे
की
आवाज़
आई है!

इस बार
है यक़ीनन
कोई बुत
या उसका ख़ुदा
जिसकी
पाज़ेब
चटखने की
आह
पुरज़ोर आई है।

अपनें ही
ज़मीर
के इशारे से
जो
रोके थी
सैलाब के पाँव,
उसी
नज़र ए नाज़ुक
की आह नें
पलकें झुकाई हैं।

सदमा ए क़यामत
ही तो है,
सह लेंगे,
कौन
किसी
दिले बीमार
की
आतिशे फ़रियाद आई है।

तीर

बनाते हो
बस
बातों
के पेड़ों
की टहनियों
के तीर,
छोड़ते हो,

टहलते हो
फलसफों के
बागों
दिन भर,
और
क्या
अहले कमाल
करते हो।

कंकड़

एक कंकड़ ही था फैंका ज़माने नें अन्दर मेरे
कहाँ कहाँ कौन सी आवाज़ याख़ुदा निकली

करीब से

चल
मान लेता हूँ
तेरी
वही बात
जो
तब कही थी
तुमनें
वसूख से।

चल भूल जा
कहा था
जो भी
मैंनें
तुमसे
तब
गुरुर से।

हाँ,
है दुनिया
वाकई
हुबहू वैसी
जैसा
तुम कहते थे,
देख लिया
मैनें भी
आज
बहुत करीब से।

Thursday, March 20, 2014

याद

आती नहीं है याद
मुझे
अब
अपनें गाँव की।

काले पानी
की नालियाँ
कराती हैं याद
गाँव के
उसी तालाब की,
फ़सलों को
मुट्ठी भर भर
बाँटते थे
जो दवाइयाँ,
मिलती हैं
झोली भर
वहीँ की तरह
यहाँ भी।

गाँव की
पगडन्डियों सी हैं
टूटी सडकें
यहाँ,
पानी बिजली
की किल्लत
वहाँ भी है
यहाँ भी।

अस्पताल
वहाँ
थे न के बराबर,
यहाँ हो कर भी
नहीं सलामत,
शमशान
वहाँ भी है
यहाँ भी।

आती नहीं है
माँ
मुझे याद
अब
अपनें गाँव की।

यकीं

न कर तिलिस्म की दुनिया पर यकीं इस कदर
ख़ुदा नहीं बशर का ही हाथ है इसके पीछे ।

बुत

ढूंढ़े जो शक्लों से अक्लों के बुत नाकाम रहा
नासमझ भी यहाँ जुदा जुदा नक्शों के थे

मझदार

मझधार में छोड़ना कब थी फ़ितरत मेरी
आपको डुबोनें का जुनूं था, छोड़ता कैसे!

ऊन

जीवन की
ऊन
की डोर
जब
उलझ जाती
बहुत ज़्यादा,
निकल जाता हूँ
शहर से
मील के पत्थरों
के रास्तों
खोल बिछानें
हर उलझन की
लम्बाई
दूर तक।

जाता हूँ
छोर तक
और
लौटता हूँ
समेटता
हाथों पे
सुलझी डोर
बनाते
सम्भालते
जीवन का गोला,
या बुनते
आशाओं का
स्वैटर

ख़्वाब

मिल ही जाते
तुम्हें
तुम्हारे
ख़्वाब
गर देखते
कभी मुड़के,
होते मद्धम
कुछ थम जाते,
देते
पकड़ने
उन्हें
जो आते थे
भागते
तुम्हारे
ही पीछे
पकड़ने
तुम्हें।

Tuesday, March 18, 2014

मोक्ष

मोक्ष से पहले
आइये
यजमान
मोक्ष की
तैयारी कर लें।

करें कुछ
घर की सफाई
कुछ
गली
शहर
देश
दीमाग
दिल
चरित
की कर लें।

थूकें
ज़रा कम
हर ऐसी आदत पर
विचार कर लें।

पढ़ लिख लें
ज़रा
हैवान को
इन्सान कर लें,
पढ़े लिखे
जाहिलों सा
फिर
न करें
बर्ताव,
सलीके का
ध्यान कर लें।

करें
सूक्ष्म
आधारभूत
प्रथम
मसलों का
समाधान
सर्वप्रथम,
बड़ी बातें
ज़रा
बाद में
कर लें।

लायें
जीवन में
शालीनता
अनुशासन,
कर्तव्यों का
निर्वहन कर लें,
दें
पशुओं
को प्यार
पशुत्व का
बलिदान
कर दें।

करें
अग्नि को समर्पित
सुशुप्ति की दशा,
जीवन कुण्ड को
दीप्तिमान कर लें।

स्वर्ग की
थोथी
बात छोड़ें,
स्वर्ग से
जीवन का
यहीं निर्माण कर लें।

मोक्ष से पहले
आइये
यजमान
मोक्ष की
तैयारी कर लें।

अचानक

100 करोड़ लोग
अचानक
कहीं गायब हो गए।

सुबह
बसें खाली थीं
जो बचे
बैठ कर गए।

फ़ुर्सत की
उस शाम
भीड़ के आदी
भाग कर
पहाड़ चढ़ गए,
पीछे
कुछ समन्दर उतरे
कुछ आसमान उड़ पड़े,
रातों से जागे
जो बचे
बगीचों सो गए।

दूसरी सुबह
भीड़ की दीवार से परे
जो था
दिखनें लगा।
अकेलापन
जो भीड़ में था
सुलानें लगा
गोद में सहला।

धूप
हवा पर बैठ
आ गयी
बंद गलियाँ,
परछाइयाँ
डराना छोड़
चलनें लगीं
पकड़ उंगलियाँ ।

वजूद

जो दिखता है
और जो है
में है कुछ ज़रूरी
जगह
दोनों से ज़रूरी
और
ज़्यादा सत,
उसी से है
दोनों का
वजूद

पुकार

आई है
फर्ज़ की
सौम्य
पुकार,
ऊँची और स्पष्ट,
करूँगा ज़रूर
पूरी
हूँ वचनबध्द।

है
मेरे लिए
यह
ख़ुदा का फ़रमान,
दिन हो या रात
करूँगा पूरा
होनें न दूँगा
उसे
मायूस,
भले देनी पड़े
जान।

Monday, March 17, 2014

ट्रेन

खड़ी होती है
हमेशा
वो
ट्रेन
उसी स्टेशन
उसी समय
इंतज़ार में
मेरे
ठीक वक्त
रोज़।

कौन सी ट्रेन
किस स्टेशन
कब,
करती है
तय
ख़ुद ही।

मुझे
मिलती है
जो भी
जहाँ भी
जब भी,
पहचान लेता हूँ
कर लेता हूँ
कुबूल।

बात

बहती हुई
बात को
कहनें दो
कविता,

जमी सी
रवानी को
कहानी
कहनें दो।

ख़ुदा की
बात सुनो
बशर,
आज
ख़ुदी की
रहनें दो।

कहाँ

रडार
के पीछे
ऊपर
नीचे
उड़ते हैं
जो तय्यारे*           (*हवाई जहाज़)
वो कहाँ हैं?

यहीं हैं
यहीं कहीं हैं।

टी वी
रेडिओ
के
कैमरों
माइक्रो फ़ोनों
से परे
दूर
ओझल
है जो दुनिया,
उसके लोग
ज़मीनों
चाँद सितारे
कहाँ हैं?

नहीं हैं,
उनकी
हमारी
दुनिया,
कहीं नहीं हैं।

Sunday, March 16, 2014

किले

तलवारें नहीं
सन्दर्भों
से
लड़े
वो
मजबूर
लड़ाके
बचानें
अपनें
विश्वासों के
किले|

पत्थरों
के
किले
रहे सलामत,

लड़ाकेे
सब
लड़ मरे|

गली

लो लग गया हमारी गली भी एक बुत
चलो सम्भालें कब्र, इससे पहले एक और आये

ख़ू

क्या
ख़ूब
ख़ू* है           (*आदत)
आपकी,   
आदतन सी है!

तीलियाँ

मिली थीं
जैसे
बरसों पहले
डायनासोरों
की हड्डियाँ,
वैसे
ही
जब
बाद सदियाँ
मिलें
इन्सां की
भी
तीलियाँ,
उगल देंगी
राज़
बहुत से,
फ़ितरत मगर
कहेंगी
कैसे!

रिस चुकी हो
जितनी गहरी,
हया भी
शायद
बची
तो होगी।

तस्वीरें

लोग
तस्वीरों में
इतना
मुस्कुराते क्यों हैं,
इतनें हैं
ग़मगीन
तो
जताते
क्यों हैं!

पंछी

ये कौन सा
है पंछी
किस
नस्ल का है?

ढूँढ़ता
बनाता
सजाता है
पिंजरे,
किस जिबाल* का है!      (*पर्वत, पहाड़)

आकाश से है
नफ़रत
ज़मीनों से प्यार,
दरो दीवारों
में हो कैद
झरोखों से
झाँकता है|

सावन की
नहीं पहचान इसे
हर मौसम
पतझड़ कहता है
हरे पत्ते तोड़
सूखे पत्ते
जलाता है!

दरख्तों से
है जंग
इसकी
बाग
उजाड़ता है
धुआँ भरता है
दम में,
दम को
उड़ाता है!

फूलों
फलों
परागों
से है चिढ़,
आँधियों
ग़ुबारों
से लगाव,
जन्नत सी
सरज़मीं को
दोज़ख़
बनाता है!

चुगता नहीं है
दानें
बस  मिट्टी
खाता है,
आता नहीं है
गाना,
रोता
चीखता
चिल्लाता है!

ये कौन सा है
पंछी
किस नस्ल का है!
ढूँढ़ता
बनाता
सजाता है
पिंजरे,
किस जिबाल का है!

होली

आओ खेलें
जज़्बों की होली,
उड़ायें
रंगो लफ़्ज़,
सोच का लाल आस्मां
हरा पीला करें।

वजूद के
चेहरे पर
मलें
आरज़ू का गुलाल,
मिलें
माज़ी से गले
पशेमानियाँ
आज़ाद करें।

करें मीठा
मुहँ
आज का,
मुस्तकबिल
का
इस्तकबाल करें।

भिगोयें
रूह
नए पानी से,
बदन से
उमंगों के
पैरहन*       (*कमीज़,वस्त्र, पोशाक)
चिपकनें दें|

हटायें
आफ़ताब*           (*सूरज)
से अब्र**            (**बदल)
धनक #              (#rainbow)
आँखों में
उतरनें दें।

पहचान
न पाएँ
ख़ुद को
आज के बाद,
कुछ ऐसी
ज़िन्दगी को
रवानी*  दें |        (*बहाव, तेज़ी)

Saturday, March 15, 2014

कहाँ

भटके हुए थे जो जो,पहुँच गए
पहुँचे हुए थे वो जो,कहाँ गए!!!

एतमाद

जलमग्न कर माँ को समन्दर में पूजा का बाद
करेगा विसर्जित ये समाज बेटियाँ भी एतमाद* के साथ

* confidence

बाक़ी

दुनिया की पुतलिओं में न खंगालो ख़ुद को
बचा है जो बाक़ी डुबो दोगे सम्भालो उसको

आरजू

आरज़ू है पुरज़ोर कोई हमदम हमख्याल मिले
आइनें में मिले या आइनें के आर मिले ।

किताब

रहने दे तेरी किताब, ख़ुद ही सुना दे
चश्मे नम से क्या पढूँ, आवाज़ से पिला दे

शर्त

इस शर्त पे हो रहा हूँ कुरबां तेरी सलीब पर
कल जो उठा कब्र से तो मैं ही उठूँगा

रंग

यूँ ही नहीं मिले, कुछ सबब और है
गुलों की शोखी पे न जा,वो रंग और है

जवाब

करता नहीं हूँ दावा कि मिल गया तेरा जवाब
बस इतना जनता हूँ , तू लाजवाब है

कलाम

लाओ जल्दी कागज़ और कलम, कलाम आया है
हुई है कुबूल इबादत, ख़ुदा का सलाम आया है

पोटली

विशालकाय
भीमकाय
दैत्यकार
स्थूल,
सदियों से लेटे
एक ही करवट,
पहाड़
के पैरों
में
लिपटा
मीलों लम्बा
अजगर।

अजगर की
पीठ पर
निडर हो
दौड़ती
माचिस
की डिबिया,
उस डिबिया
में
अकड़ कर
बैठा
फंसा
मैं
डिबिया का मालिक,
भरे
डिबिया की
डिक्की में
गलत फहमियों
की पोटली
अजगर से लम्बी
पहाड़ से ऊँची।

Friday, March 14, 2014

मौसम

लद गईं दुकानों की शाखों पे पिचकारियाँ
होली में पशेमानियाँ भिगोने का मौसम आ गया

जन्नत

चाहता है कौन परतना जन्नत से दोज़ख
वीज़ा था ख़त्म, तय्यारा* तैयार, आना पड़ा।

*हवाई जहाज़

Thursday, March 13, 2014

आईना

आईने से बाँध आधी दुनिया ज़नाना
इन्सां नें अपनी ग़ैरत चश्मो नज़र की है

कविता

कवि
कर लो
कुछ आराम
होनी को
होने दो।

चढाओ
दवात पर छत
कलम को
सोने दो।

सूखनें दो
वर्कों के
सपाट मैदानों में
छिछली
नीली नदियों
की स्याही,
बात को
रहनें दो।

रहनें दो
आज
शब्दों के
तरकश
टंगे
नफ्ज़ कशी*                  (*self denial)
की कील पर,
ख्यालों में
मर मिटनें
की कवायत
रहनें दो।

न बुझाओ
ये
प्यास की
आग
तरन्नुम के
नीर से,
जलनें दो
धू धू
भीतर,
ख़ुदी को
स्वाह
होनें दो।

गुज़र जानें दो
कशमकश
की आँधियाँ
जज़बातों
के ग़ुबार
उड़ने दो,
भटकनें दो
ख़ुद को
सराब* में              (*mirage,मृग मरीचिका)
बिन कागज़ कलम,
सहरा** में                      (**desert)
हो गुम
कुछ
मिल जाने दो।

लिखनें दो
आज
हवाओं को
कविता
किरणों से
ज़मीं पर,
आज तुम
रुको
कुदरत को
कहनें दो।

कवि
कर लो
कुछ आराम
कलम को
सोनें दो

तिजारत

बदल गया बशर तेरी तिजारत का निज़ाम कैसा
कभी पैसे से खरीदता था ज़िन्दगी, आज ज़िन्दगी से पैसा

किनारा

आ ही लगा
वो
बन के
भटकता
कोई किनारा
मुझसे,

मैं
अपनें
ही
मुस्तकबिल का
समन्दर निकला

Wednesday, March 12, 2014

ख्वाहिश

मुहँ से निकली हर ख्वाहिश मेरी पूरी हो
इसी को छोड़ के मौला हर ख्वाहिश पूरी हो

कोई

बाशिंदे तो बहुत थे अगल बगल मगर
अगल बगल का कोई बाशिंदा न था

रास्ता

न मिला रास्ते में मुझे वो रास्ता हसरत का
समझ गया है यही वो रास्ता सही रास्ते का

खुद्दारी

हुई जो मेरी खुद्दारी को ज़रा सी तकलीफ़
ख़ुदा मझधार में छोड़ मुझे नाख़ुदा* बनना ही था

*boatman,मल्लाह

नैय्या

डूबने से बचनें के लिए बशर
डूबती नैय्या को तुझे छोड़ना ही था

बत्ती

ढकी हुई लाल बत्ती भी कुछ कम लाल नहीं
बुझे बुझे भी जलाती है ज़हनों में बत्तियाँ कई

इशारे

लाख शारे से न समझे जो इशारा ज़िन्दगी का
फिर उसके लिए काफ़ी है इक इशारा ज़िन्दगी का

उम्मीद

उम्मीद तो है सौ बरस जीयेंगे
सौ बरस मरनें से तो बेहतर है

वक्त

हुआ था मुक़र्रर* जो वक्त, गुज़र गया,
अब जाईये, कल आइयेगा, जान लेनें ।

* तय

जमाल

इस कदर भी नहीं हूँ मुत्मइन* तेरे जमाल से
ए ज़िन्दगी तुझे मुक़र्रर** कहूँ, तू इरशाद करे

*satisfied
**urging to repeat

तस्लीम

तस्लीम* का सिला हमें ये मिला
हम ही तस्लीम** हुए शहादत को

*salutation
**adopt,accept

Tuesday, March 11, 2014

कैसे हो

मिला था
जब
तुम्हें
पिछले
जनम,
चेहरा
तुम्हारे
वजूद का
कोरा सा था।

मिले हो
अबके
जब
छुपाये हो
कहानियाँ
कई
झुर्रिओं
के सफ़ों,
चेहरे
की जिल्द
में।

नायक
या लेखक बन
मिले हो,
कहो
कैसे हो।

तस्वीर

ईश्वर
ले गया
निकाल
अपनी तस्वीर
मेरी कार
के
डिविनिटी
मन्दिर से।

चलता हूँ
चलाता हूँ
अब सिर्फ़
अपनें ही
भरोसे
ध्यान से।

देखता है
मुझे
वो
दूर ही से
हो कर
खुश,
होने पर
मेरे
स्वावलम्बी।

परिवार

बेटा
बन जाता
जब
बाप
ख़ुद का,
और
बाप
हो जाता
बेटा
अपना ही,
बसा लेते
दोनों
अलग
जहाँ
पालनें को
वो
परिवार
नए।

खम्बे

चौराहे के
खम्बे
बिजली
बत्तियां
ही बताएँ
तो चले पता
कि
कब रुकें
कहाँ
किधर
कब चलें।

भीतर के
खम्बे तो
सारे
गिर चुके
कब के,
बत्तियाँ
सब
बुझ चुकीं।

सब

दार जी
की मिट्टी,
बी जी
के चश्मों
के टुकड़े,
बचपन के कपड़ों
के रेशे,
स्कूल की
गिरी दीवार
की इंटें,
सारे आँसुओं का पानी,
खुशिओं के
ठहाकों से दबी हवा,
साँसों की गर्मी,
पैरों के
निशान से
हटी मिट्टी,
गावों के खेत,
शहरों की ज़मीन,
खंडरों के अवशेष,
इंटों में पकी आग,
आग की ठंडी राख़,
राख़ का ग़ुबार,
ग़ुबार की आह,

सब
यहीं तो हैं।

सौ साल
लम्बा
आज ही तो था
आज ही तो है।

मेरी
कब्र का सामान,
बच्चों की ज़िद
का जवाब,
दुनिया के वजूद
का इम्तेहान,
कल की बारिश,
परसों का तूफ़ान,
अगले बसंत
के फूलों
का पराग,
बैसाख
की फ़सल
के बीज,
दीवाली
के दीयों की
बातिओं की रुई
और आग,
सब यहीं
तो हैं।

हज़ार साल लम्बा
आज ही तो होगा
आज ही तो है।

घूमता
डूबता
निकलता
सूरज,
यहीं तो था
यहीं तो है।

कुछ और

कहते हैं वो कि कुछ और सुनाओ
टटोलते हैं हम जिगर कुछ खून और

दख़ल

दख़ल देनें की आदत नहीं थी हमारी
वर्ना दुनिया का निज़ाम* हमें पसंद न था।

*administration,set up

बाहम

जिस्मो रूह खुश थे बाहम*
मंज़िल ही आ गई, जाना पड़ा।

*together

क्यों

गर तू ही है ख़ुदा तो बता
मेरी जगह तू क्यों नहीं है?

और गर तू ही है मौजूद
इखलाक*मेरा तुझसा क्यों नहीं है?

*virtues, morals

तफसील

तफसील* से कोई समझाये तो समझें,
यूँ इशारों इशारों में ज़िन्दगी को कौन समझे।

*detail में, properly

गुमान

सिखाया दुनिया नें बहुत गुमान करना
वक्त नें यूँ समझाया कि सब भूल गये।