गर
कर दूँ
हर
इंतज़ाम
तेरी
ख़्वाहिशों
का मैं,
इतना बता
रही ज़िन्दगी
किस
ख़्वाहिश
को
जीयेगा?
देख ले
दिखा ले
भर ले
सजा ले,
हो ले खुश
इतरा ले,
कर ले
गुमान
जी भर
तन पर,
हक़ है
तुझे ।
और
फिर
यदि
मिले
ज़रा भी
होश की
मोहलत
खोल भी तो सही
ये तोहफ़ा,
उतार
चमकती परतें,
देख
भेजा है
क्या
क्यों
किसने
किसे ।
माँ
आपका प्रसाद
पहुँचा
जिव्हा तक,
रोम रोम
झिझुर गया!
आपके
हर इस
रोम को
प्रणाम |
करिये
दूर
बस
जो
ज़रा सी है
कड़वाहट
पीछे
मुहँ में,
कहिए
भक्तों को
पकायें
आइंदा
सिर्फ़
ईमान के तेल में|
भीड़
जिस्मों की
रही थी
तेज़ तेज़
चल
सड़कों पर
जल्दी में
कुछ काम से
जानें क्या
कहाँ
क्यों !
रूहें
उनकी
थी
आ रहीं
मस्ती में
पीछे
धीरे धीरे
मिलते
खुलूस से
आपस में
गले
किया था
क्या कसूर
उस
दाने
आखिरी नें,
आपनें जो
छोड़ दिया।
टूट के
आया था
जिस शाख़ से
करके ज़िद
बुझानें
आपके
उदर की
आग,
क्या भेजे
घर
पैग़ाम
की मायूस हुआ?
एक हाथ की
दूरी पर है
मोक्ष,
जब कहोगे
मिल जाएगा।
माँगना
बुलाना
उठाना
मगर
तभी
जब
हो ज़रूरत,
कमरे में
सजाने
या
अलमारी में
रखनें को
मत लेना।
खड़ा है
एक तनें पर
पतझड़ के
अकेलेपन में
वो,
उठाए
हजारों हाथों से
अपना
आसमान,
करते
शुक्रिया
पिछले सावन का,
माँगता
झड़े पत्तों
की मुक्ति,
करता
प्रार्थना
पानें की
अगली
रुत के
फल,
और
उनको खानें
सलामत
ज़िन्दा
दुनिया ।
छेड़ती है
रात
हर रात
मुझे
"देख
कुछ भी नहीं
बचा”
कहकर,
फिर
सुबह सुबह
हर सुबह,
मेरे जन्मदिन
की तरह,
खींच कर
अँधेरे की
चादर
दफ़्फ़तन* (*अचानक)
"लो
सब कुछ है
बचा”
चूमकर
कहती है!
इन्सां
तेरे भीतर
का कूआँ
आवाजों से
है लबरेज़* (* लबालब)
किस कदर
गूँजनें
को
कुछ भी
जगह नहीं,
डूबनें को
अथाह** (**बेहिसाब)
समन्दर !
जिससे डरते हो
उसे ही
सलाम
किसी और का
कुछ और
कुछ ज़्यादा
देते हो|
लगाते हो
लत
सजदे की
इस कदर,
उसी के
जूते को
हर दर
हर मुकाम
पाते हो|
करते हो
जिससे प्यार,
नहीं डरते जिससे
सिरे से
उसे ही
दरकिनार करते हो|
चाहता है
जो तुम्हें
उसे देखते भी नहीं,
टेढ़ी है
जो नजर
उसी से
चार करते हो!
सुनते हो
उसी की
जो करता है
स्वाँग
न सुनने का,
तरसता है
सुनने को
जो
तुम्हारी
हर आवाज़
कहाँ
कान धरते हो!
करे
तुमसे
कैसा सलूक,
बताकर
आईनें को
खुद ही
खराब करते हो
शीर्षासन में खड़ी है दुनिया
शवासन की बारी है
पद्मासन को समझ न पाई
नादानी लाफ़ानी* है।
*immortal
जदों
कोई
मरदा
अत्त दा दुखी
यकीनी
भटकदी
ओह दी
रूह।
पर
जे कोई
जाँदा
रज्ज के सुखी
बणदा
आसमाने
चानण दा
खू ।
किवें
छड्डाँ
रोणा,
किवें
लवां
साह
ते जीवां?
या
छड्डाँ
जीण
मरण
दा चा,
प्यार दे कासे
रज रज
पीवाँ ।
मेरे ईश्वर
एक दिन के लिए
दुनिया की
हर आवाज़
हटा दे,
गूँजनें दे
सन्नाटों की
नसीहतें
ज़हनों में
होश आने दे।
सोचनें दे
सबको
जो
कहते
करते
चीखते थे,
थमनें दे
गले की
बाँसुरी में
हवा,
साँसों में
संगीत आनें दे।
पापा
जब जब
बैठता हूँ
आपकी बाइक पर
बड़ा अच्छा लगता है।
लगता है
आप पीछे ही
हो बैठे
मुझे पकड़े
देखते।
रखता हूँ
जब
बस हाथ भर
हैंडल पर
लगता है
दायाँ हाथ
दबा
घुमा
रफ़्तार बढ़ाते हो।
रहते हो
पकड़े
पक्का
सब कुछ
निगाह रखते हो।
लेते हो
जब साँस
मेरे कंधों पर
धड़कनें मेरे
सीने में
बढ़ाते हो,
चलाता हूँ
शान और
ज़िम्मेदारी से
होकर चौकन्ना
आपको
दिखाता हूँ।
बाकी थी
कब से
जो तमन्ना
कि
घूमता
कभी
आपके साथ,
होती है पूरी
अब
हर बार
जब जब
बैठता हूँ
आपकी
बाइक पर।
बैठा हूँ
आँखों की
खिड़कियो में
कहीं,
दिखती है
दुनिया
एक तरफ़,
सामनें,
बाहर
और पीछे
नीचे
गहरे अँधेरे
है
कहीं
एक और दुनिया
पुकारते
मेरा नाम
दिन भर
कई बार,
करती
मुझ पर
झूठा दावा,
बुलाती
खींचती
मुझे
गूँजकर।
जाऊँ किधर?
कूदूँ बाहर
या फिसल जाऊँ
भीतर?
उड़ जाऊँ
या
कर दूँ
समर्पण?
या
बैठा रहूँ
यहीं
आज़ाद मुंडेर
देखता
दोनों दुनिया!
सौ सालों
से जो
ढूँढता है
खोया वक्त
पेरिस का
आसमान,
देता है
आवाज़ें
दबा दबा
पेंट की
दर्जनों
परतों में
आइफ़ल टावर
से
Eiffel tower was built in 1887-89
and is painted once every 7 years
Entire landscape around it has changed several times in last 125+ years
जो जो
जब जब भी
उठा
ज़मीं से
मिट्टी के फव्वारे सा
देह बन,
गिरा
देर सवेर
वहीं
या कहीं,
कुछ बहा
और
रिस गया
नीचे
वापिस
फूटनें
फिर
कभी
कहीं
आधा
अधूरा
या पूरा!
छोड़
वक्त
पीछे
ऊपर
मंडराता
वहीं
तितली सा
विचलित
करता इंतज़ार
युगों लम्बा
सूरज के
पिछली गली
से
घूम
लौट आनें
को ही
सुबह
कैसे
कह दूँ,
मेरी दुनिया
भी
कुछ पलटे
तो सवेरा
समझूँ।
पूरब से
जो घुली है
कुछ रात की
स्याही
मेरी निराशा
की भी
पौ फटे
तो उजाला समझूँ।
तारे हैं
सब डूब चुके,
चाँद के कदम भी
दहलीज़ पर हैं,
मेरे आसमानों
से भी
बादल उतरें
और
मैं निकलूँ।
मस्जिद से
जो उठी है
अज़ान की आवाज़
मेरा रोम रोम
भी झुके
तो नमाज़ समझूँ।
चिड़ियाँ तो
निकल आईं
घोंसलों से
चहचहाती
मेरी खिड़की,
मेरा दिल भी
फड़फड़ाए
कुछ गाये
तो
ज़िन्दा समझूँ।
बच्चो
आज
अख़बार में
अपनीं तस्वीर
देखी,
तुम्हारा पैगाम पढ़ा,
अच्छा लगा।
हमेशा से
ख्वाहिश थी
देखनें की
ख़ुद को
सुर्खियों में
चलो
यही
सही।
देख ले
आज
दुनिया
कि
मैं याद हूँ
तुम्हें
आज भी
कितना...
अच्छा लगा....
बस
अगले बरस
पन्ना तीसरा
और
इश्तहार
बड़ा रखना,
छपवाना
कारोबारों का भी नाम,
फ़ोन पता
सब लिखना।
जब आती है
आखिरी बार
मिलनें
कैसे आती है?
आती है
उछलते
भागते
नाचते
या
हया को
दबे पाँव
लाती है!
कैसे
आती है?
आती है
आधी रात
छुपते
छुपाते
या
दिन उजाले
सामनें सबके,
आती है
उसके
आनें की
आहट
या
उतार वो
पाज़ेब
आती है!
रूकती
छिपती है
कहीं
किसी
दम की चिलमन,
खड़काती है
दरवाज़ा
या अन्दर आ
पीछे से
ठंडे
हाथों
आँख मिचोती है?
कैसे आती है?
कहती है
क्या,
कानों में
बताती है,
देती है
कुछ
तैयारी का
वक्त
या
तैयार आती है?
क्या
दिखाती
सुनाती है
आँखों की पुतलिओं
कानों के पर्दों को,
देह की चादर पे
क्यों सहलाती है!
थामती है
हाथ
जब प्यार से
बार आखिरी
बाहर लाती है
कहलवाती है
अलविदा
जहाँ को
कैसे,
कैसे समझाती है।
करती है
क्या क्या
झूठे वादे
दिल बहलाती है,
बुझाती है
कैसे
आँखों के दीये
कैसे फूँक से
सपनें सुलाती है!
जब
जाती है
बार आखिरी
मेरी
जान
कैसे जाती।
जूते आपके
देखकर
पीले
आई है
याद
मुझे
पीली पट्टी
की वो टैक्सी,
हो
न हो
लगाएंगे
आप भी
हुज़ूर
बहुतों को
पार
वसूलकर
कीमत
टूटा है
अन्दर
आज
कुछ
ज़रूर,
इतनी जोर से
जो
सन्नाटे
की
आवाज़
आई है!
इस बार
है यक़ीनन
कोई बुत
या उसका ख़ुदा
जिसकी
पाज़ेब
चटखने की
आह
पुरज़ोर आई है।
अपनें ही
ज़मीर
के इशारे से
जो
रोके थी
सैलाब के पाँव,
उसी
नज़र ए नाज़ुक
की आह नें
पलकें झुकाई हैं।
सदमा ए क़यामत
ही तो है,
सह लेंगे,
कौन
किसी
दिले बीमार
की
आतिशे फ़रियाद आई है।
बनाते हो
बस
बातों
के पेड़ों
की टहनियों
के तीर,
छोड़ते हो,
टहलते हो
फलसफों के
बागों
दिन भर,
और
क्या
अहले कमाल
करते हो।
चल
मान लेता हूँ
तेरी
वही बात
जो
तब कही थी
तुमनें
वसूख से।
चल भूल जा
कहा था
जो भी
मैंनें
तुमसे
तब
गुरुर से।
हाँ,
है दुनिया
वाकई
हुबहू वैसी
जैसा
तुम कहते थे,
देख लिया
मैनें भी
आज
बहुत करीब से।
आती नहीं है याद
मुझे
अब
अपनें गाँव की।
काले पानी
की नालियाँ
कराती हैं याद
गाँव के
उसी तालाब की,
फ़सलों को
मुट्ठी भर भर
बाँटते थे
जो दवाइयाँ,
मिलती हैं
झोली भर
वहीँ की तरह
यहाँ भी।
गाँव की
पगडन्डियों सी हैं
टूटी सडकें
यहाँ,
पानी बिजली
की किल्लत
वहाँ भी है
यहाँ भी।
अस्पताल
वहाँ
थे न के बराबर,
यहाँ हो कर भी
नहीं सलामत,
शमशान
वहाँ भी है
यहाँ भी।
आती नहीं है
माँ
मुझे याद
अब
अपनें गाँव की।
जीवन की
ऊन
की डोर
जब
उलझ जाती
बहुत ज़्यादा,
निकल जाता हूँ
शहर से
मील के पत्थरों
के रास्तों
खोल बिछानें
हर उलझन की
लम्बाई
दूर तक।
जाता हूँ
छोर तक
और
लौटता हूँ
समेटता
हाथों पे
सुलझी डोर
बनाते
सम्भालते
जीवन का गोला,
या बुनते
आशाओं का
स्वैटर
मिल ही जाते
तुम्हें
तुम्हारे
ख़्वाब
गर देखते
कभी मुड़के,
होते मद्धम
कुछ थम जाते,
देते
पकड़ने
उन्हें
जो आते थे
भागते
तुम्हारे
ही पीछे
पकड़ने
तुम्हें।
मोक्ष से पहले
आइये
यजमान
मोक्ष की
तैयारी कर लें।
करें कुछ
घर की सफाई
कुछ
गली
शहर
देश
दीमाग
दिल
चरित
की कर लें।
थूकें
ज़रा कम
हर ऐसी आदत पर
विचार कर लें।
पढ़ लिख लें
ज़रा
हैवान को
इन्सान कर लें,
पढ़े लिखे
जाहिलों सा
फिर
न करें
बर्ताव,
सलीके का
ध्यान कर लें।
करें
सूक्ष्म
आधारभूत
प्रथम
मसलों का
समाधान
सर्वप्रथम,
बड़ी बातें
ज़रा
बाद में
कर लें।
लायें
जीवन में
शालीनता
अनुशासन,
कर्तव्यों का
निर्वहन कर लें,
दें
पशुओं
को प्यार
पशुत्व का
बलिदान
कर दें।
करें
अग्नि को समर्पित
सुशुप्ति की दशा,
जीवन कुण्ड को
दीप्तिमान कर लें।
स्वर्ग की
थोथी
बात छोड़ें,
स्वर्ग से
जीवन का
यहीं निर्माण कर लें।
मोक्ष से पहले
आइये
यजमान
मोक्ष की
तैयारी कर लें।
100 करोड़ लोग
अचानक
कहीं गायब हो गए।
सुबह
बसें खाली थीं
जो बचे
बैठ कर गए।
फ़ुर्सत की
उस शाम
भीड़ के आदी
भाग कर
पहाड़ चढ़ गए,
पीछे
कुछ समन्दर उतरे
कुछ आसमान उड़ पड़े,
रातों से जागे
जो बचे
बगीचों सो गए।
दूसरी सुबह
भीड़ की दीवार से परे
जो था
दिखनें लगा।
अकेलापन
जो भीड़ में था
सुलानें लगा
गोद में सहला।
धूप
हवा पर बैठ
आ गयी
बंद गलियाँ,
परछाइयाँ
डराना छोड़
चलनें लगीं
पकड़ उंगलियाँ ।
आई है
फर्ज़ की
सौम्य
पुकार,
ऊँची और स्पष्ट,
करूँगा ज़रूर
पूरी
हूँ वचनबध्द।
है
मेरे लिए
यह
ख़ुदा का फ़रमान,
दिन हो या रात
करूँगा पूरा
होनें न दूँगा
उसे
मायूस,
भले देनी पड़े
जान।
खड़ी होती है
हमेशा
वो
ट्रेन
उसी स्टेशन
उसी समय
इंतज़ार में
मेरे
ठीक वक्त
रोज़।
कौन सी ट्रेन
किस स्टेशन
कब,
करती है
तय
ख़ुद ही।
मुझे
मिलती है
जो भी
जहाँ भी
जब भी,
पहचान लेता हूँ
कर लेता हूँ
कुबूल।
बहती हुई
बात को
कहनें दो
कविता,
जमी सी
रवानी को
कहानी
कहनें दो।
ख़ुदा की
बात सुनो
बशर,
आज
ख़ुदी की
रहनें दो।
रडार
के पीछे
ऊपर
नीचे
उड़ते हैं
जो तय्यारे* (*हवाई जहाज़)
वो कहाँ हैं?
यहीं हैं
यहीं कहीं हैं।
टी वी
रेडिओ
के
कैमरों
माइक्रो फ़ोनों
से परे
दूर
ओझल
है जो दुनिया,
उसके लोग
ज़मीनों
चाँद सितारे
कहाँ हैं?
नहीं हैं,
उनकी
हमारी
दुनिया,
कहीं नहीं हैं।
तलवारें नहीं
सन्दर्भों
से
लड़े
वो
मजबूर
लड़ाके
बचानें
अपनें
विश्वासों के
किले|
पत्थरों
के
किले
रहे सलामत,
लड़ाकेे
सब
लड़ मरे|
मिली थीं
जैसे
बरसों पहले
डायनासोरों
की हड्डियाँ,
वैसे
ही
जब
बाद सदियाँ
मिलें
इन्सां की
भी
तीलियाँ,
उगल देंगी
राज़
बहुत से,
फ़ितरत मगर
कहेंगी
कैसे!
रिस चुकी हो
जितनी गहरी,
हया भी
शायद
बची
तो होगी।
ये कौन सा
है पंछी
किस
नस्ल का है?
ढूँढ़ता
बनाता
सजाता है
पिंजरे,
किस जिबाल* का है! (*पर्वत, पहाड़)
आकाश से है
नफ़रत
ज़मीनों से प्यार,
दरो दीवारों
में हो कैद
झरोखों से
झाँकता है|
सावन की
नहीं पहचान इसे
हर मौसम
पतझड़ कहता है
हरे पत्ते तोड़
सूखे पत्ते
जलाता है!
दरख्तों से
है जंग
इसकी
बाग
उजाड़ता है
धुआँ भरता है
दम में,
दम को
उड़ाता है!
फूलों
फलों
परागों
से है चिढ़,
आँधियों
ग़ुबारों
से लगाव,
जन्नत सी
सरज़मीं को
दोज़ख़
बनाता है!
चुगता नहीं है
दानें
बस मिट्टी
खाता है,
आता नहीं है
गाना,
रोता
चीखता
चिल्लाता है!
ये कौन सा है
पंछी
किस नस्ल का है!
ढूँढ़ता
बनाता
सजाता है
पिंजरे,
किस जिबाल का है!
आओ खेलें
जज़्बों की होली,
उड़ायें
रंगो लफ़्ज़,
सोच का लाल आस्मां
हरा पीला करें।
वजूद के
चेहरे पर
मलें
आरज़ू का गुलाल,
मिलें
माज़ी से गले
पशेमानियाँ
आज़ाद करें।
करें मीठा
मुहँ
आज का,
मुस्तकबिल
का
इस्तकबाल करें।
भिगोयें
रूह
नए पानी से,
बदन से
उमंगों के
पैरहन* (*कमीज़,वस्त्र, पोशाक)
चिपकनें दें|
हटायें
आफ़ताब* (*सूरज)
से अब्र** (**बदल)
धनक # (#rainbow)
आँखों में
उतरनें दें।
पहचान
न पाएँ
ख़ुद को
आज के बाद,
कुछ ऐसी
ज़िन्दगी को
रवानी* दें | (*बहाव, तेज़ी)
जलमग्न कर माँ को समन्दर में पूजा का बाद
करेगा विसर्जित ये समाज बेटियाँ भी एतमाद* के साथ
* confidence
विशालकाय
भीमकाय
दैत्यकार
स्थूल,
सदियों से लेटे
एक ही करवट,
पहाड़
के पैरों
में
लिपटा
मीलों लम्बा
अजगर।
अजगर की
पीठ पर
निडर हो
दौड़ती
माचिस
की डिबिया,
उस डिबिया
में
अकड़ कर
बैठा
फंसा
मैं
डिबिया का मालिक,
भरे
डिबिया की
डिक्की में
गलत फहमियों
की पोटली
अजगर से लम्बी
पहाड़ से ऊँची।
कवि
कर लो
कुछ आराम
होनी को
होने दो।
चढाओ
दवात पर छत
कलम को
सोने दो।
सूखनें दो
वर्कों के
सपाट मैदानों में
छिछली
नीली नदियों
की स्याही,
बात को
रहनें दो।
रहनें दो
आज
शब्दों के
तरकश
टंगे
नफ्ज़ कशी* (*self denial)
की कील पर,
ख्यालों में
मर मिटनें
की कवायत
रहनें दो।
न बुझाओ
ये
प्यास की
आग
तरन्नुम के
नीर से,
जलनें दो
धू धू
भीतर,
ख़ुदी को
स्वाह
होनें दो।
गुज़र जानें दो
कशमकश
की आँधियाँ
जज़बातों
के ग़ुबार
उड़ने दो,
भटकनें दो
ख़ुद को
सराब* में (*mirage,मृग मरीचिका)
बिन कागज़ कलम,
सहरा** में (**desert)
हो गुम
कुछ
मिल जाने दो।
लिखनें दो
आज
हवाओं को
कविता
किरणों से
ज़मीं पर,
आज तुम
रुको
कुदरत को
कहनें दो।
कवि
कर लो
कुछ आराम
कलम को
सोनें दो
हुई जो मेरी खुद्दारी को ज़रा सी तकलीफ़
ख़ुदा मझधार में छोड़ मुझे नाख़ुदा* बनना ही था
*boatman,मल्लाह
इस कदर भी नहीं हूँ मुत्मइन* तेरे जमाल से
ए ज़िन्दगी तुझे मुक़र्रर** कहूँ, तू इरशाद करे
*satisfied
**urging to repeat
मिला था
जब
तुम्हें
पिछले
जनम,
चेहरा
तुम्हारे
वजूद का
कोरा सा था।
मिले हो
अबके
जब
छुपाये हो
कहानियाँ
कई
झुर्रिओं
के सफ़ों,
चेहरे
की जिल्द
में।
नायक
या लेखक बन
मिले हो,
कहो
कैसे हो।
ईश्वर
ले गया
निकाल
अपनी तस्वीर
मेरी कार
के
डिविनिटी
मन्दिर से।
चलता हूँ
चलाता हूँ
अब सिर्फ़
अपनें ही
भरोसे
ध्यान से।
देखता है
मुझे
वो
दूर ही से
हो कर
खुश,
होने पर
मेरे
स्वावलम्बी।
बेटा
बन जाता
जब
बाप
ख़ुद का,
और
बाप
हो जाता
बेटा
अपना ही,
बसा लेते
दोनों
अलग
जहाँ
पालनें को
वो
परिवार
नए।
चौराहे के
खम्बे
बिजली
बत्तियां
ही बताएँ
तो चले पता
कि
कब रुकें
कहाँ
किधर
कब चलें।
भीतर के
खम्बे तो
सारे
गिर चुके
कब के,
बत्तियाँ
सब
बुझ चुकीं।
दार जी
की मिट्टी,
बी जी
के चश्मों
के टुकड़े,
बचपन के कपड़ों
के रेशे,
स्कूल की
गिरी दीवार
की इंटें,
सारे आँसुओं का पानी,
खुशिओं के
ठहाकों से दबी हवा,
साँसों की गर्मी,
पैरों के
निशान से
हटी मिट्टी,
गावों के खेत,
शहरों की ज़मीन,
खंडरों के अवशेष,
इंटों में पकी आग,
आग की ठंडी राख़,
राख़ का ग़ुबार,
ग़ुबार की आह,
सब
यहीं तो हैं।
सौ साल
लम्बा
आज ही तो था
आज ही तो है।
मेरी
कब्र का सामान,
बच्चों की ज़िद
का जवाब,
दुनिया के वजूद
का इम्तेहान,
कल की बारिश,
परसों का तूफ़ान,
अगले बसंत
के फूलों
का पराग,
बैसाख
की फ़सल
के बीज,
दीवाली
के दीयों की
बातिओं की रुई
और आग,
सब यहीं
तो हैं।
हज़ार साल लम्बा
आज ही तो होगा
आज ही तो है।
घूमता
डूबता
निकलता
सूरज,
यहीं तो था
यहीं तो है।
गर तू ही है ख़ुदा तो बता
मेरी जगह तू क्यों नहीं है?
और गर तू ही है मौजूद
इखलाक*मेरा तुझसा क्यों नहीं है?
*virtues, morals
तफसील* से कोई समझाये तो समझें,
यूँ इशारों इशारों में ज़िन्दगी को कौन समझे।
*detail में, properly