Wednesday, April 30, 2014

हवन

चलो
लगायें
ध्यान...

चलनें
को ही
समझें
समाधी,
कहनें
की ज़रूरत
को ही
मौन समझें |

देह का
निवाला ही
उपवास सही,
चाय के
प्याले को
प्राण समझें |

मानें
देह को
पूजा की
थाली,
जलायें
करुणा की
लौ
तड़प का
तेल जलायें |

उडनें दें
हर दिशा
समर्पण की
सुगंध,
दिनचर्या को
अनुष्ठान
जीवनयापन को
हवन समझें |

अमर

ख़ुदा
तेरे
मुर्दों की
बड़ी
लम्बी
उमर है,
सदियों से
हैं
ज़िन्दा,
लगता है
अमर हैं!

परख

पत्थर को
मिट्टी से,
मिट्टी को
पानी से,
पानी को
हवा
और
हवा को
धूप से,
धूप को
वक्त,
वक्त को
आसमान,
आसमान को
सपनें
और
सपनें को
हक़ीकत से
तोलते
मिलाते
परखते
नापते हो!

होओगे
ज़रूर
तुम
इन्सां ही,

भगवान को
ढूँढ़ते
होओगे|

परछाईं

हाथ
की
परछाईं भी
छूई
न थी
अभी
तितली को,
उड़ गई!

दे गई
ईशारे में
सबूत
भय का,
थीं
और
कौन कौन सी
भावनाएँ
दबी
भरी
उसमें,
काश!
बता जाती|

Tuesday, April 29, 2014

तोहफ़ा

देख
रहीं थीं
आँखें
उनकी
वो
पतलून
जो दी थी
हमें
तोहफ़े में
उन्होंनें
बीते बरस,

और
हमें
चुभ
रहीं थीं
उसी पर्दे में
अपने
वजूद की
दो टाँगें
जिन पर
अभी तक
हम
खड़े
न थे

Monday, April 28, 2014

प्रार्थना


जैसे
रहता है
खड़ा
सामनें
चुपचाप
बिना दिये
कोई मशवरा
प्रतिक्रिया,
टिप्पणी,

बिना किसी
डाँट डपट,
नाराज़गी
हैरानगी
मायूसी,

जैसे
रहता
सुनता
चुपचाप
बिना टोके रोके,
चाहे जितनी
देर,
एकटक,
समझते
सब कुछ...

वो ईश्वर,
जब करता हूँ
उससे प्रार्थना....

वैसे ही हो
तुम,
इसीलिए
शायद
अच्छे
हो लगते
इस कदर |

रास्ते

रात की
महफ़िल में
निकलते हैं
जब
बुझी हसरतों
के जुगनूँ,
अँधेरों की
चमक से
ढूँढ लेते हैं
गुमशुदा
मंज़िलों के
रास्ते।

पतंगा

शम्मा सा
जलता है
जब
दिन भर
सूरज,
शाम तक
पतंगे सा
तड़प
गिर ही मरता है
इन्सां कैसे!

लगाती है
जब
मरहम
ठण्डी चाँदनी,
सहलाती है
चेतना के
झुलसे पंख,
उठ
जा बैठता है
मुर्दे सा
सुबह
फिर
उसी महफ़िल।

सीढ़ियाँ

आज
फिर
गुज़रे
करीब से
बच्चे
वो दोनों।

एक
चढ़ता
ऊपर,
बाँधे
पीठ पर
भविष्य लदा
स्कूल बस्ता।

दूसरा
उतरता
संभवनाओं की
सीढ़ियाँ
लादे
रीढ़ पर
माज़ी भरा
मट्टी का बोरा।

Friday, April 25, 2014

किताब

यही
सोच
मैनें
उसे
भेंट में
नहीं दी
वो किताब,
शायद
खोज ले
उसका कौतुहल
उस किताब से
जुदा
कोई हल,
कोई रास्ता
नया।

रहा
मगर
वो उड़ता
भटकता
तितली की तरह,
अवचेतन,
उठाता
बिखेरता
पहुँचाता
इधर उधर
जीवन पराग,
रहते
स्वयं
तलाशता
फीका
शहद।

पर्वत

पहचान ही
लेती है
पर्वत पिता
के
दो ऊँचे हाथ
दूर से ही,
नदी,
उछलती
कूदती,
फाँदती,
खिलखिला हँसती,
दौड़ती,
कभी
छ्पिकर चलती,
दबे पाँव
घाटी की
ओट ओट
उनकी गोद।

उठाते
खेलाते
पालते
सम्भालते
चलाते हैं
फिर
पिता,
उसे,
पकड़ा
तलहटी की
उंगलियाँ,

करनें
सुपुर्द
विदा
उसे
खुले
मैदान के हाथ,
उड़ते
फिर
पास पास
ऊपर,
बन के हवा
समन्दर तक,
लाने
फिर उसे
वापस
उसी हिमालय
जनम को
अगले
उठाकर
गोद
बनाकर भाप।

Thursday, April 24, 2014

दीवाली

लगाऊँगा
ज़रूर
गले
आपको
एक बार
बर्बादी की शाम,
मनाऊँगा
हसरतों
की
दीवाली
अमावस की रात।

विद्यालय

जब जब भी
शादियों
के मुहूर्त
वाले दिन
आते हैं,

जंज घर
के साथ वाले
राजकीय
कन्या
विद्यालय
की
बामुश्किल पहुँची
बच्चियों को
बड़ी
तकलीफ़
होती है।

एक तो
पूरा पूरा
दिन
लाऊडस्पीकरों
का शोर
नहीं देता
पढ़नें,
दूसरा
भविष्य की
चिंतायें
बैण्ड बाजा बन
डराती हैं।

Sunday, April 20, 2014

मंज़र

ज़रूर पहनता
बढ़िया कपड़े
गर दिन
आज
कुछ
ख़ास होता,
बनाता
खाता
लज़ीज़ पकवान
गर
उत्सव कोई
नायाब होता।

परोसता
उन्हें भी
भोजन,
पिलाता पानी,
करता
उनके
जूते भी साफ़,
चमकाता,
और
झाड़ता
धूल
कुछ खुद से भी,
होता गर
ईश का द्वार
कोई पर्व होता।

रोकता
हाथों को
इमां के कत्ल से,
समझता
सामनें वाले
की बात,
बात का मान करता,
समझता
अपनाता
कुछ धर्म की बात
निर्मल मन से
कुछ
निस्वार्थ करता।

हैं
पर्दे के पीछे
फ़िलहाल वही मंज़र,
वही ज़ंजीरें
वही सवाल,
भीतर का नज़ारा
भी बदलता
तो कमाल होता।

Thursday, April 17, 2014

पैसे

आपनें
तो
झट से
पैसे निकाल
फट से
मँगवा लिया
मनपसंद
खाना,
और
खाते हो।

कहो
तो,
मैं
किस से
लाऊँ
जो दूँ
और
खाने को
कुछ
पाऊँ-

बोलीं
हाइवे के
ढाबे में
मेरे टेबल
के सामने
खड़े
उस
मासूम
कुत्ते की
भूखी
आँखें।

बेधड़क

दूर देश
अनजान
इलाके में
बिन दस्तक
बेसबब
बेझिझक
बेवक्त
पहुँच
कह ही दिया
मैंने
बेधड़क –

“लाओ
मेरे दाने,
लाओ
मेरा
पानी"

Monday, April 14, 2014

चार दीवारी

रूह,
मेरे बच्चे,
क्या
हिलाती हो
टाँगें
मना करने
पर भी
बैठे यूँ
गोल धरती के
पलंग पर!

उतरो
निकलो
चार दीवारी
से
ज़रा
बाहर,
कुछ
खेलो
कूदो,
घूम के आओ
बाहर,
खुले में।

झोली

शुक्र
ख़ुदा का
हो गया
अहसास
फिर भी
कुछ
जल्द,

समेट

पाऊँगा
कायनात
सारी
झोले में
इस,

लो
छोड़ता हूँ
अभी
के अभी
उठाइगिरे
का काम,

ये उतारता हूँ
काँधे से
गलतफ़हमियों
और
मलकीयत
की
बोरी,

ये झाड़ता हूँ
ज़हन के
कपड़े,

ये सीधी कर
विचारों की
दुखती
झुकी
टेढ़ी
रीढ़,
सर उठा
बिन बोझ
बचे वक्त
चलता हूँ
जीता हूँ।

Sunday, April 13, 2014

आई

पेड़ों
के चूल्हे पर
पकाती थी
हाथों से
उतार
गर्म गर्म
खिलाती थी,
बुझाती थी
सदियों
की प्यास
कभी
कूओं की
सुराही से
कभी
नदियों की
बुक से
पिलाती थी।

करती थी
बादलों की
चुन्नी से
छाँव,
हवा की
फूँक से
सहलाती थी।

पहनाती
कभी
मखमली
घास की
चप्पल,
कभी
मिट्टी से
माँज
भटकन के चक्र
पैरों से
मिटाती थी।

धोती थी
पैर
ला ला के
दूर से
लहरें
बार बार,
पूरब की
हवाओं से फिर
सुखाती थी।

बिठाती
वादियों की
गोद,
खामोशिओं की
लोरियाँ
सुनाती थी।

रखती थी
निगाह
हर दम
चाँद सितारों
की हज़ार
आँखों से,
जलते सूरज
की नज़र से
रात भर
बचाती थी।

यतीम को
पालती थी
माँ से ज़्यादा,
कुदरत आई
तुम्हें
मैं
कभी
माँ कहूँ,
अब समझता हूँ,
तुम
चाहती थी!

Saturday, April 12, 2014

खलल

तुम्हारा
ही था
सर
झुकाता कैसे,
तुम्हारी ही
ज़ुबान,
माँगता कैसे?

देता
कैसे
टेक
तुम्हारे घुटनें,
फैलाता
कैसे
तुम्हारे ही
हाथ?

आ कर
तुम्हारे ही
घर,
चलकर
पैरों पर
तुम्हारे,
तुम्हारी ही
आँखों से
तुम्हें देख,
हूँ
सोचता
बस यही,

कहीं
हूँ तो नहीं
तुम्हारी ही
प्रार्थना!

कहीं
बन न जाऊँ
सबब
खलल का।

कहनें
करनें
होनें दूँ
तुम्हें
मुझमें,
रहूँ
खामोश
देखता
सुनता
मुस्कुराता
खड़ा
कोने।

पलकें

आज भी
झपककर
अपलक
करती हैं
गीला
बार बार
गोद में
बैठी
बुझी
आँखें,
वो पलकें
इस तरह,

जैसे
चूमती हो
माँ
बार बार
अपना
बच्चा
खोने के
बाद भी
कई सदियाँ ।

Friday, April 11, 2014

पैग़ाम

देखो
वो
दूर से
आता है
तेज़ तेज़
साइकिल पर
नामाबर*           (*डाकिया)
डाले
झोले में
कुछ
ख़ास।

जाओ
भाग
गाँव के
पार,
बुझाओ
आग,
जोड़
लाओ
वापस
वो
खुशनसीब
जाता था
जो
जहाँ से
इंतज़ार में
किसी
पैग़ाम के।

मिट्टी

आया है
ख़्याल
अभी,
हूँ
मुस्कुरा रहा
ये जान,

बना हूँ
मिट्टी से
उसी
जिससे
बने थे
क्या क्या
कौन कौन
कभी
पहले भी।

हूँ
रोमाँचित
सोच कर,
बनेगा
और
क्या क्या
कौन
कब
कहाँ,

कैसा
मटका,
कैसी
सुराही,

मिट्टी से
इसी,

घूमते
चाक पर
धरती के,

किस
कुम्हार
के हाथ,

भरने
कौन सी
हवा
कौन सा
पानी

बुझाने
किस किस की
कौन सी
प्यास,

किस दहलीज़
किस बोड़
किस उजाड़

कहानी

आओ
बैठो
यहाँ
मेरे सामने
देखो ज़रा
मेरी तरफ़।

खोलूँ
काटूँ
तुम्हें
कलम की
धार से,
निकालूँ
अंदर से
तुम्हारे,
तुम्हारी
महकती
भीगी
नायाब
कहानी,
मेरी ज़ुबानी।

Sunday, April 6, 2014

किनारा

मेरे
बच्चे,
या अपनीं
मर्ज़ी
कर ले
या मेरी
सुन ले।

गर नहीं
तो
इतना ही
कर ले,
अपनी को
मेरी
या मेरी
को
अपनी
समझ ले।

कुछ तो
कर,
यूँ न
तड़प,
मेरे बच्चे,

मझधार
में न
रह
खड़ा,
किसी किनारे
तो
डूबले।

Friday, April 4, 2014

सुबह

सूरज,
जिस दिन
सदियों लम्बी
रात के
पिछले पहर,
वक्त के
तेल को जला,
बिन फूँक
ख़ुद ही
फड़फड़ा के
बुझोगे,
कौन सी
हसीन
सुबह
लाओगे,
कब लाओगे!

Tuesday, April 1, 2014

बैसाख

आ गई
फिर
विचारों की
बैसाख।

दिल है
बाग़ बाग़
देख
खरीफ़ कविताओं
की
लहलहाती
फ़सल।

चलो
ज़हन की मिट्टी
को
अब लेने दूँ
साँस,
छोड़ दूँ अकेला
करनें दूँ
आराम,
सोनें दूँ।

न डालूँ
उतावले अहसासों से
गर्भ का बोझ
इसकी झोली,
हल्के पाँव
ज़मीं को
कुछ देर तो
उड़नें दूँ।

उठे
फिर
जो सो कर
बाद दिनों,
परतें खोल
इसकी
विवेचन के
परिंदों को
आलोचना के
कीड़े चुगनें दूँ।

मिलाऊँ
तजुर्बे में
नवीनता की
खाद,
समझ का
रंग परतनें दूँ,
नया होनें दूँ।

उखाडूँ
जड़ता की
खरपतवार,
सहजता से
ख़ुद को
सींचनें दूँ।

उतरनें दूँ,
फिर,
नई दुनिया के
बीज इसमें,
रबी की
कवितायेँ
उगनें दूँ।