बहुत देर तक
तेज़ तेज़
भागी
नीचे
रनवे पर
ऊपर उठते
हवाई जहाज़ की
परछाई,
फिर
थककर
करके क़ुबूल
आसमान का हुक़्म
छोड़ दिया पीछा
उसका
उसने
कहके
अल्ला
हाफ़िज़।
बहुत देर तक
तेज़ तेज़
भागी
नीचे
रनवे पर
ऊपर उठते
हवाई जहाज़ की
परछाई,
फिर
थककर
करके क़ुबूल
आसमान का हुक़्म
छोड़ दिया पीछा
उसका
उसने
कहके
अल्ला
हाफ़िज़।
एक हफ़्ते से
जिसे
मिलता रहा
ख़ुलूस से,
दिल ओ हाथ
मिलाता रहा,
आज
रुख़सत के दिन
आई कार्ड देखा
तो मुसलमान
निकला,
काश
पहने होता
मैं भी
अपनी पहचान,
था मैं भी
उसका
खैरख्वाह
हक़ीक़त में,
उसे भी कोई
शुबा न रहता।
दो चार सौ
औरतों लड़कियों की
खुशियाँ
चुपचाप
ख़रीद
था वो
ले जा रहा
लोकल ट्रेन से
बाँद्रा,
अगले दिन
की
बिक्री
के लिए
थीं
वो तीन
पोटलियाँ
चूड़ियों की।
रेलगाड़ी को देखने
तरसते थे
बच्चे मेरे,
और
एक ये बच्चे हैं
देखते हैं
दिन में
सौ रेलें
पटड़ी
के साथ वाले
कपड़े के घर की
छेद वाली
खिड़कियों से।
आज पता चला
क्यों और कैसे बढ़ती है
हिंदोस्तान की आबादी
मुम्बई की लोकल ट्रेनें
लाती हैं लोगों को भर भर के,
कहाँ से लाती हैं
बाक़ी बस सवाल ये है
गुफाओं में
खोद
लगा लिए
वो दरबार
जो बाहर
लगने न दिए,
पत्थरों से
कहाँ रुके
वो इरादे
जो हवाओं
में थे।
अम्पलीफिकेशन
मल्टीप्लीकेशन
परोजेक्शन
मग्निफिकेशन
इंडोर्समेंट
जब तक
नहीं होता,
इंसान
इंसान रहता है
कोई
कंप्लीकेशन
टेंशन
नहीं
र
होता।
आज़ान की
रिंगटोन का
लगा
पाँच दफ़ा
अलार्म,
इन्सां की
जारी है
अभी तक
पुरज़ोर कोशिश
न भूलने की
उसको
जो
भूला नहीं
कभी
किसी को
बिना अलार्म
बिना रिंगटोन...
जिसे
समझता है तू
पिकनिक की जगह,
कहीं हो न तू
उसी सतूप के खण्डरों का
कोई श्रापित
जो
अभी
जकड़ा है
यहीं!
कर भी लेता
ख़ुदकुशी
वो कूद कर
आसमाँ की
किसी
मंज़िल से,
गर देखता
कोई
उसे
ज़मीन से,
किसी को
फ़ुर्सत होती...
देखो
राज्यपाल हूँ मैं
इतना तो
बनता है
हक़
मेरा,
बस अ की
मात्रा ही तो है,
जोड़ने दो
इसे,
मेरे
राज भवन की
तख़्ती के
"राज" में....
भागती है
सरपट
बाहर की ज़मीं
या नीचे की पटरी
या सारी ये रेल,
भूल जा,
तेरी सीट है जब
तेरे वजूद के नीचे,
सुकून से बैठ,
यूँ
खून न जला।
दीपक
तुझे
देखता हूँ जब
इस करीब से,
पुतलियों की
बंद खिड़कियों से
ठिठुरती
रूह को
आती है
ग़ज़ब
गर्माइश,
तेरी
इसी दीवाली को
बीनता है दिन
बरस
मेरा।
सौवें माले को
स्वर्ग समझ
चढ़ तो
जाते हैं वो
हर शाम
बच बचा कर,
हर सुबह
नफ़रत के
नर्क में
सवर्ग बटोरने,
मगर,
उतरना पड़ता है
उन्हें...
आज भी
सौ में निन्यानवें ने
अख़बार नहीं ली,
आज भी
सौ में से निन्यानवें को
चूँकि
उसमें
जगह न मिली।
गरीब का बच्चा
इसी में खुश था,
सांता
नहीं लाया कुछ उसके लिए
तो नहीं लाया,
पर
बाँटने के बाद
सभ्यता के बच्चों को
क्रिस्टमस के तोहफ़े,
कम से कम
अपनी
गिरी टोपी तो
उसके लिए
पड़ी वहीं
छोड़ गया।
काश
भेज पाता
हवाओं की
ठंडक
सरसराहट
भी तुम्हें
तस्वीरों में भर,
तुम्हारी
ज़ुल्फ़ें भी
छेड़ती
दिल बहलाने
के साथ...
कहना तो चाहता है
बहुत कुछ
ये सागर
मुझसे,
भेजता भी है
मेरी ओर
लहरें
भर भर के,
मेरे ही किनारे
हैं ज़मीन से जुड़े
आसमाँ से बंधे...
आसमाँ
तू तो कहता था
ऊपर है तू,
नीचे है ज़मीं,
फिर क्यूँ
मिलाया
तूने
छुपके
ज़मीं से हाथ
दूर
क्षितिज पर
आज फिर
सूरज डूबते...
दो
छोटी सी
आँखों में
समाया
थोड़ा सा
अरब सागर
कुछ मुंबई
और सारा मरीन ड्राइव....
होतीं तुम्हारी
तो
समा जाते
यकीनन
दो जहाँ भी...
कौए को
घायल चूहे के
मरने
तक का
सब्र
न था,
अपनी
मेहनत पर
यकीन था,
क़िस्मत पर
ऐतबार
न था।
नहीं भागी थी
वो बकरी
सुन कर
फ्रूट वाली की
मराठी में
गालियाँ,
वो तो
बड़ी
मीठी थीं,
वो तो
थी भागी
देख
हाथ में उसके
खामोश
अंधी
लाठी...
एक आस से
आये थे
छत पर
कबूतर,
देर तक बैठे
फिर उड़ गए,
चिमनी में
धुआँ तो था,
चूल्हे में
आग
क्यों न थी?
नई जगह
नींद में
यक ब यक
क्रिस्टमस की सुबह
सुनीं जो
तेरी आज़ान
तो एक बार तो लगा
मैं तेरे पास
पहुँच गया,
होश की आँख खोल
पलकों का पर्दा उठाया
तो पाया
मैं था
अभी भी
वहीं,
तू
आया था।
सागर तट
से
पर्वत शिखर
पर
जाने में
लग जाते
चूँकि
उसे
चंद
दस हज़ार बरस
शायद,
बुलवा भेजा
मुझे,
सदियों से
भीगते
उस पत्थर नें,
मेरे हाथों से
उठवा
जेब में
ख़ुद को
डलवाया
उसनें।
बैठा हूँ
कब से
किनारे
दिल के,
गिनते
पूरनमासी को दिन,
शायद
उठ पड़ें
यादों के ठहरे समंदर में
भावनाओं की
लहरें|
एक बस
रुक गुज़री थी
उस स्टॉप से,
मैंने देखा,
सम्मोहित कर
निगल गई
दस बीस
सवारियाँ,
कहाँ
जाकर
उगले अब उन्हें,
सोच में हैं
रास्ते!
अपने
मददगार
के निशां
वो दिन रात
उठाये था
अपनी ही
देह पर,
कुर्ता
जो पहना था
उसने,
नाप
किसी और का था।
वो
पेड़
सूख कर भी
वहीं रहा
गिरा नहीं,
बिखेरता रहा
नसीहत के फूल
तजुर्बे के फल
इरादों की जड़ों पर
एक तने पर खड़ा।
कौमी अख़बार
के पहले पन्ने
की बाईं ओर
के चार उंगली
के कॉलम में
छपवाने
अपने चले जाने
की ख़बर,
ताउम्र
जीता रहा
तीसरे पन्ने
के विज्ञापनों
के ऊपर,
रह गया
बनके
बायोग्राफ़ी,
अपनी
आत्मकथा न
पढ़ पाया।
तितली के
पंख हिलाने
से भी गर
दुनिया का कोई
तूफ़ान
कहीं
उठता या थमता है,
हार न मान,
कुछ भी कर,
एक ज़लज़ला
तेरी भी राह
तकता है।
किसी नें
तीन रूपये
न लौटा
ज़मीर
बेच दिया,
किसी ने
दो रूपये भी
कर के वापिस
रहन
छुड़वा लिया,
ज़मीर,
हैरान हूँ मैं,
अपनी
कीमत
तो बता।
क्यूँ
लगाया है
ताला
फ़ौजी भाई
आपने
अपने ट्रंक पर?
कीमती
किस्से बहादुरी के,
जंग, ज़िन्दगी और मौत के,
वतन की इज्ज़त
और
अमन की गारंटी,
सभी
जब उठाये हो
खुले में
सामने
अपने
कमाये
जिस्म पर?
ज़िन्दगी
की
हर सराय है
मेरे
जल पान
विश्राम
के लिए,
वक़्त ही वक़्त है
मंज़िल के पास
मुझ तक
पहुँचने
के लिए।
न ब्याह
मुझको
मेरी माई,
मेरी
बात
सुन,
सम्हालने दे
ताउम्र
यूहीं
तेरे न हुए
बेटे की तरह
तेरी
ये दुकान,
स्वावलम्बी
आज़ाद
खुश
रहने दे।