होगा ज़रूर
वो
किसी
सूखी नदी का
भीगने को तरसा
चकमक
पत्थर,
गुमनामी की हवाओं में
उड़ने से रोके है
मेज़ पर पड़े
जज़्बातों के समंदर भरे
सूखे काग़ज़।
दसवीं
पास हूँ,
दुनिया वालो
कभी
पूछ तो लो,
है
सच में
मेरे पास
असली का
जीवन से कीमती
वो सर्टिफिकेट,
एक बार सही
देख तो लो.
उम्र
की दीवार
पर
सफ़ेदी की
सूखती
पपड़ी सा
इंसान,
वक्त की
उतावली
कूची
थमी
इंतज़ार के हाथ,
गीले
पेंट से
तर|
लम्हों को
कब
मलाल
वक्त के
गुज़र
जाने का,
उड़ते हैं
कुछ देर
घड़ियों के
परिंदे बन
सूरज के पीछे पीछे
घौंसलों के रास्ते में
खेल समझकर.
क्या
हासिल
बनाकर
अट्टालिका
इतने
आसमानों
वाली,
बचने
बाहर के
भेड़ियों से,
जिस जिस
ज़मीनी
मंज़िल पर
पाला
न कोई
कुत्ता,
साये मिले।
सर से सर
तसले से तसला
काँधे से काँधा
मिलाया
मज़दूरी में
स्त्री पुरुष ने,
ठेकेदार प्रधान
समाज में
ग़ज़ब
समाजवाद
दिखा।
थी ये
मुश्किल की
मजबूरी
कि उसे
सुलझना
ही था,
बचानी थी
उसे
दहशत की
आबरू,
लौटने
के लिए
लौटना
ही था।
मालिक
तेरा
ग़ुलाम पर
दावा
कब्र ए हातिम पर
लात* नहीं,
क़ुबूल
जो हो
उसको
हर जवाब,
तेरा
सवाल
नहीं|
*(मुहावरा=परोपकार)
खोली
जो
उस
भीख
माँगते ने
लाचारी में
समझाने को
अपनी
बंद मुठ्ठी
तो
ऐ दुनिया
उसमे
तू
निकली,
दिखी
बन
चारों
दिशाओं सी
एक एक
धातू की अशर्फ़ी
मगर
खाली पेट
को भर
सुला देने को
अभी
दस
कम
निकली|
बहुत
रगड़ा
पोंछा
चमकाया
उसने
नई
बाइक का
क्रोम मड गार्ड
कोशिश के
हर कपड़े से,
आँखों से
छिपकर भी
ज़हन से
दुआ बाँटते
भिखारी के
फिंगरप्रिंट्स
न गए|
दुनिया नें
मेरी
ख़ामोशी के
क्या क्या
मतलब
निकाल
लिए,
था
मुझसे तो
इस
कोहराम में
कुछ
सोचा
भी न
गया।
20 रूपये
ग़ालिबन
बचे होंगे
उसके
मुझसे
लिफ़्ट लेकर,
उतरते वक्त
धन्यवाद भरी
मुस्कराती
2000 की
लिफ़्ट
दे गया।
अभी
तुम्हारे
बाज़ार
बदले
नहीं हैं,
कुमार एंड सन्ज़
हैं
हर तरफ़,
कुमार एंड डॉटर्ज़
डॉटर इन लॉज़
नहीं हैं|
अक्सर
कह देता हूँ
ख़ुद को
आई लव यू,
दिल में
नहीं
रखता,
कौन जाने
लौट जाये
मायूस
मेरा वजूद
इसी
प्यास में।
काँटे
फूलों को
मुबारक,
खाने दो
मुझे
उँगलियों से
अपनी,
उस
क्यारी की
मिट्टी
बनने में
वक्त है
अभी।
बन
मेरे
सपनों की
बुलंद दीवार,
बेल
बन
लिपट
उठूँ मैं,
चढ़ूँ
पकड़
तेरे
सम्बल
की पीठ,
निर्वाण
की छत से
हक़ीक़त की
ज़मीन
देखूँ मैं।
जिन
नन्हें
प्यारे
नुक्कड़ के
पिल्लों पर
छिड़कता था
जान
सारा मोहल्ला,
उन्हीं
के लिए
बेझिझक
एक मत से
आज
मंगवाया है
म्युनिसिपेलिटी से
सबने
ज़हर...
मसरूफ़ हूँ
और
कुछ
मजबूर
अभी,
आना है
मुश्किल,
भेज दो
मुझ ही तक
दुनिया
बाँध
पोटली में
किताबों की।
किस गाँव किस घर की छत से निकलते धुएँ के गुबार मेरी फूँकी धौंकनी की बदौलत उठेंगे,
किस किस उपले पे होंगे मेरी उंगलियों के निशाँ, किस संयुक्त परिवार की भीड़ की रोटियाँ सेकने में जलेंगे!
किस हतोत्साहित पति की मार के निशान उठाऊँगी पीठ की सलीब पर,
किस सास ससुर ननद की तीखी ज़ंग लगी सोच की सूली पर चढूँगी,
किस देश की राहें बाँचेंगे मेरे कोरे पासपोर्ट के पन्ने,
किस यूनिवर्सिटी के प्रॉस्पेक्टस पर चिपकने को मेरी तस्वीरें रोयेंगी,
कौन शहर तरसेगा मेरे काम के कमाल को,
किस महाद्वीप के आकाश मुझ बिन वो सारे जहाज़ उड़ेंगे,
कौन सी हक़ीक़त लूटेगी मेरी कौन सी क़िस्मत,
मेरे किस भविष्य को मेरा आज निगलेगा,
किस पति परमेश्वर की मैं दुल्हन बनूँगी,
किस शख्स़ को,पापा, मैं बॉय फ्रेंड चुनूँगी!