बदल ले
ख़्वाहिश
इससे पेश्तर
कि
दम निकले,
मुनासिब
नहीं
हर तमन्ना की ज़िद,
है बेहतर
कम निकले!
अनाथ
बच्चे की तरह
लिया है गोद
मेरी रूह नें
मुझको,
होश के
पैरों पर
खड़ा कर
आग से
ब्याह देगी
मुझको|
ऐतवार
की छुट्टी
के बिना
अगला हफ़्ता
यूँ हुआ शुरू,
जैसे
पुनर्जन्म की
जल्दी हो किसी को,
जाते ही
लौटे!
चढ़ आया था
जो
पीठ पर
सुबह सुबह,
काँधों पर
ढली सुबह
उतरा था,
बाहों में
था जो
दूसरे पहर,
शाम की कमर पकड़
उतरा था,
ढलती शाम
फिर
डूबता
वो सूरज,
जाने क्या
समझाता था|
जी भर कर लो
लम्बी
गहरी
साँसें
रात भर,
पी लो
शहर का
सारा ज़हर,
रात को
एक बार फिर,
ऐ दरख्तो,
सहर करो..
सभ्य समाज में
रहकर देखिये
आपको
अच्छा लगेगा,
हो सकता है
मिलें
कुछ चीज़ें
कुछ देर से,
मगर
सब कुछ मिलेगा!
मत
जगाओ उसे अभी,
सोने दो,
गया है
माँ के घर
बादलों पार
नींद की दोपहर
खाना खाने ,
रूह है
अभी
उसकी
पीछे
अधूरे खेल में ,
सुबह की ढली धूप
लौटेगा ज़रूर
खेलने|
शहर के
बीच वाले कोने में,
आधी रात
बंद दरवाज़ों के पीछे
चुपचाप
गाने बजाने से भी
जब
न मिली
अहम् को मुक्ति,
घुटन बे इन्तेहा हुई,
खोलनी ही पड़ी खिड़कियाँ
चलाने ही पड़े
लाऊडस्पीकरों के पंखे
तब
आराम मिला|
गूँजता हूँ
गर आज भी
कानों में तुम्हारे,
मन की आँखों से
रु ब रु
दिखता हूँ,
हूँ ज़िंदा
जब
यादों में तुम्हारी
क्यों जताते हो
दर बदर
कि मुर्दा हूँ!
होती देखी
जब
तकलीफ़
पेड़ों को
कहने में
अलविदा,
पत्तों नें
हौले से हिला
ख़ामोश हवायें
बुलवाया
तूफ़ान
और
राह उतर गए।
5 क्विंटल पक्की
2 क्विंटल कच्ची
लकड़ियाँ
लाने को कहा है
जानकार ने,
मंगवा लूँ
तेरे नाम पर
कैश ऑन डिलीवरी
फ्लिपकार्ट से
तुम्हें
जलाने के लिए?
गुरूद्वारे के सामने वाले
मैदान में
बच्चे
हर शाम
फुटबॉल खेलते हैं,
ईश्वर की
अपार कृपा है
नशे निराशा से
अछूते हैं।
वो मन्दिर था
सो पूज्य थी
आपकी
चरणधूलि,
यहाँ
सड़क पर
लगी होगी
मिट्टी
पैरों में आपके,
कैसे
बिठाऊँ गाड़ी में
अपनी,
लिफ़्ट दूँ!
वकीलों
मुवक्किलों
और सर्व साधारण को
सूचित किया जाता है
कि
न्याय
तीन महीनों के लिए
सिक लीव पर रहेगा,
न्यायधीश महोदय
कल और परसों की
कैज़ुअल लीव पर हैं,
दोनों दिनों के मुक़द्दमों
की तारीख़
अब तीन महीने बाद की
हुई है
तय।
एक नहीं
तीन तीन
बेनामी खाते थे
उनके,
उन्हीं में से
वो सारे खाते थे,
पासवर्ड नहीं था
कोई
उनका,
गाँठें थी
तीनों पर
एक एक,
हाथों की लकीरें दिखा
खोलते बाँधते थे,
गुड़
चावल
दान का आटा
था भीतर,
बाहर
आँखों वाले
जाने क्या क्या
आँकते थे!
प्रवासी मज़दूरों के
पके चेहरों को
कोई
हिक़ारत की नज़रों से भी
छूता न था,
आज
गली के लड़कों ने
जबरन
होली का रंग लगाया
तो पहले
बुरा
फिर बहुत
अच्छा लगा।
कम्बल का दीवारें
कम्बल की छत,
हक़ीक़त का फ़र्श
वक़्त का सिरहाना,
छेदों की खिड़कियाँ
छिद्रों के नल,
सड़क का बरामदा
ठण्डी हवा की अंगीठी,
भूख की रसोई
आस का निवाला,
देह का मन्दिर
आत्मा का ईश्वर,
ज़िन्दगी की मौत
मौत का जीवन...
ढाबे के नौकर ने
मेरे
थैंक यू का जवाब
जब
इट्स ओके से दिया,
मेरे अंदर
जो जो भी
एक अरसे से
ओके था
आए ऍम सॉरी
बोल उठा...
रोज़ शाम
लौटते समय घर
गुज़रता हूँ
जब भी
सामने से उस घर के,
आती है
आवाज़
रहरास के पाठ की
वेदों के उच्चारण की
या धम्मपद की,
बूझ नहीं पाता हूँ।
गुनगुना रहा होता है
दबी आवाज़ में
कोई...
किस मज़हब की
गाता है
प्रार्थना
पहचान नहीं पाता हूँ,
ख़ुदा का एहसास
उठता है मगर
जाना सा
सीने में...
बढ़ा लीजिये
चाय का दाम
कुछ और
मगर कप में
तनिक और तो डालिए,
हो तो सही
बदन में
वो एहसास
जिसकी तवक्को है।
पार्क में
शहीद लेफ़्टिनेंट के बुत
के सर की टोपी
जिस ऊँचाई पर थी,
था होता शुरू
उसी ऊँचाई से
बगल ही में खड़े
सियासतदान का
मरणोपरांत
पैर से सर तक का
पत्थर में सफ़र,
सियासत
यकीनन खड़ी थी
शहीदों के कन्धों पर।