यूँ तो
बहुत
संयम था
उसमें,
वक़्त पड़े
संयम खोलने का
संयम नहीं था!
किस किस सफ़े नें
बाँध पीठ पर
करवा पार
युगों के दरिया
पहुँचाया है
आपके लबों से
शब्दों का ख़ज़ाना
मेरे कानों के तट,
मालूम नहीं,
मुझ ही से
शायद
जो कहा था
आपने,
मैंने सुन लिया!
मेरे ही कानों में
आपके
अधरों ने
कुछ
चुपके से
कहा है,
शब्दों के
अंदाज़े में है
दुनिया,
उनके
नसीब में
वो
लर्ज़िश कहाँ है!
मैं
आप्पे
पा लवाँगा
सिन्ने लरज़ दी कम्बणी
आप जी दे
शब्दां च
रूह नूँ
नव्हा के,
सुक्के
तय कीते
अक्खराँ दी सौग़ात
बस पुचा देवो
मेरे कन्ना दी
बुक्क!
चन्न,
तूँ ताँ
ऐत्थे ही सी
ओदों वी,
तूँ ताँ
ज़रूर
होवेगा वेखेया,
ओ मुख,
की सी
भाव
ओहना दे चेहरे ते
जदों सी उचारया
“जो तुद भावे साई भली कार"!
की
ओस तों पहलां वी सी तूँ
ऐना ही शीतल!
सूरज,
वेखेया होवेगा ज़रूर
तूँ वी
तुर्देयाँ
तिन्ना नूँ
तपदी ज़मीन ते
हर दिशा,
की ओस तों बाद वी
हैं तूँ
आपणे बलदे वजूद तों
ओना ही
विचलित!
फल की तरह
पक कर
टपक गया
मुश्किल वक़्त,
विश्राम के पतझड़ नें
मरहम की शीत ऋतु का
हौले से
मेरे कानों में
फिर
नाम लिया।
दूर
अन्तरिक्ष में
जाने कहाँ तक
पहुँच चुकी होगी
उनकी रूह
पता नहीं,
कौन झाँके
गहरे
स्पेस के कूएँ में,
फूलों की मिट्टी में है
किशोर की देह,
फ़िज़ाओं में आवाज़!
फ़ाइव स्टार नूँ
पेड़ दे थल्ले
लेआवें
ताँ आँवाँ,
सोफ़ेयाँ
दी जगह
डावें
दाओण दा मंजा,
ताँ खावाँ।
क्या लगाते हो
अंदाज़ा
मुस्कुराहटों से
खुशनसीबी का,
दिल
के सहरा से
वो दौर भी गुज़रें हैं
जिनके निशां नहीं!
दीवारों में
हंसते हंसते
चुनवाये
नहीं गए हैं,
वो लोग
खड़े हैं
ईंटों के
बिन पलस्तर
मकाँ के भीतर
खिड़की से
झाँकते हैं।
ओ
सामणे
पैरापिट ते
कौण ऐ बैठेया
बन्न
बेबसी दे सिर ते
हौसले दा
मधेड़,
मार
चमड़ी दे कम्बल दी बुक्कल,
किदरे
फेर
सोचाँ दी अंतहीन राह ते
कोई
वचारा
इंसान ताँ नहीं!
अपने भीतर के
जीपीएस,नक्शे
के हिसाब से
चल,
मील के पत्थरों
से गुमराह न हो,
जो
तेरी नहीं है
मंज़िलें
उन राहों का
हमराह न हो!
तीन टाँगों पर
खड़ा है वो
अकेला
देखता
आसमाँ से लटकी दुनिया,
करते इंतज़ार
आँख की
उस ऊँगली का
कि आये
और झपकवाये
पलकें उसकी!
ओ
सामणे
पैरापिट ते
कौण ऐ बैठेया
बन्न
बेबसी दे सिर ते
हौसले दा
मधेड़,
मार
चमड़ी दे कम्बल दी बुक्कल,
किदरे
फेर
सोचाँ दी अंतहीन राह ते
कोई
वचारा
इंसान ताँ नहीं!
किसकी थी
सोच
जो आपकी आवाज़
में थी,
ख़ामोशी आपकी
कह रही है
कुछ और,
वो खुशनीयत,वो तसल्ली
किसकी थी!
नहीं जानता
चल रहा है
कौन कौन सा
स्वप्न चलचित्र
किस किस
पलक के पटल पर,
बैठा
देखता है
अकेला
निद्रा गृह का मालिक
या वो भी
नहीं है!
नेता
पक्ष
प्रतिपक्ष
दोनों हैं
पहुँच चुके, स्वामीजी!
आपके सान्निध्य में,
बताइये
सरकार
गिरने से पहले
सम्भलेगी,
या
सम्भलने के बाद
गिरेगी?
बारूद की चमक है
उनकी आँखों में,
है धुएँ सी
मुस्कुराहट,
शायद
छिड़ी है
कहीं जंग,
नया
ऑर्डर मिला है!
बड़ी ना इंसाफ़ी
बड़ा ज़ुल्म है
रिआया का
हुक्मरानों पर,
कीमत भी लेते हैं
मय भी पीते हैं
दे कर बहु मत
करते हैं मति ख़राब
और तानाशाह भी कहते हैं!
करो
आविष्कार
किसी दूसरे
शून्य का,
भ्रष्टाचार बाबत
ज़ीरो टॉलरेंस
के उनके
शंखनाद को
करो
सत्यापित!
जब भी
करता हूँ
टीवी ऑन,
लगाता हूँ
कोई भी
न्यूज़ चैनल,
चन्द मिनटों में
लाख कोशिशों के
बावजूद,
निकल ही जाते हैं
हमेशा
दो शब्द
मुँह से...
"साला ड्रामा"
अभी
वक़्त है
एलन!
फ़िलहाल
वहीं
रेत पर सो,
किस पार
लगेगा
तेरी
मिट्टी का बिस्तर
बतायेंगी सरकारें,
कुछ मसले
हल तो हों!
कहीं और बनाओ
अपने
धुएँ का
ताज महल,
कोई दूर का
शमशान
ढूँढो,
यहाँ
शाह और बेग़म
को चढ़ता है धुआँ,
इतिहास
का दम घुटता है।
एलन,
जा
घर लौट जा
तैर कर,
बच्चे!
अपने आँगन में ही
जा कर
शहीद हो,
करवा दिया है
किसी फ़िदायीन नें
उम्मीद की शरण का
दरवाज़ा
बन्द!
स्क्रीन की जगह
आज
मुद्दत बाद
जब
अख़बार को
नंगे हाथों से
छुआ मैंने,
लगा
बीच उतर गया मैं
दुनिया के,
खिड़की से कूदकर।
शुक्र है
ऐसी
बदतमीज़ी से
नहीं पेश आये
जनाब
जलाते समय जोत
दुकान के मन्दिर में,
भाग जाता वरना
भगवान् भी
ग्राहक की तरह
कभी न लौटने के वास्ते।
बम ब्लास्ट में
200 मृत
300 घायल
400 करोड़ आतंकित,
शायद
सम्मोहित
फिदायीनों के रंगमंच का
हो यही
ऑस्कर!
"Terrorism is theater" (1974)[5] "Terrorists want a lot of people watching, not a lot of people dead" (1975)[6]
- Brian Michael Jenkins, authority on international terrorism
ज़माना
अब भी
लफ़्ज़ों को आपके
यकीनन
बट्टों की जगह रखता,
होता जो
आज भी
आप ही का
तराज़ू,
आपकी ही मूरत का
हाथ होता!
जापान से
सफ़ाई व्यवस्था का
अध्ययन कर
लौटने के बाद
आया
कर्मचारियों के मन में
ख़्याल,
काश आ जाते
साथ
जापानी ही
नागरिक
बन के!
कुछ नहीं हुआ
अमावस्या की उस रात
शमशान में,
रोज़ रोज़
कहाँ मिलता था सौभाग्य
रूहों को
बैठना
कवि सम्मेलन में!
दिया जाता है
भोपाल गैस पीड़ितों को
अंतिम मुआवज़ा,
तीस साल की रात,
और
सुबह के बाद
चालीस बरस का बुढ़ापा।
करने दूँ
आपको
हेरा फ़ेरी,
कारोबार आपका
जानकर भी
चलनें दूँ!
है यही
मोटिवेशन
आपकी,
तो यही सही।
सिर्फ़
तिजारत के लिए
ख़र्च करूँ
साँसों के सिक्के
मंज़ूर नहीं,
फ़क़ीरी के
मुकाम भी हों
हासिल,
तो कोई
बात बने!
"माननीय" शब्द
स्वयं ही
जुड़वाकर
अपने नाम के आगे
अपने सम्मान से
छीना है
आपने
एक माननीय मौका,
अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता का
ह्रास किया है!
जमात देख कर दें सम्मान
अब उन्हें
ये हिदायत है,
आत्म सम्मान से ही
चलायें काम
हम पर ये
इनायत है!
बार कोड स्कैनर
लेज़र लकीर के
वर्तमान से
होकर
गुज़र रहा हूँ
हर पल,
खड़ा हूँ
बनकर
अदृश्य सुनसान सरहद
अपने भविष्य
और भूत में!
बार कोड स्कैनर
लेज़र लकीर की तरह
गुज़रते हैं
वर्तमान के कारवाँ
हर पल
मेरे ऊपर से,
जाने क्या
ढूँढ़ते
गिनते
खंगालते
गुज़ारते हैं
मुझमें
भविष्य से
भूत में!
अति सूक्ष्म
तीखे
पल के लिए
होता हूँ मैं
वर्तमान में,
होने से पहले
बीत जाता हूँ,
सारे का सारा
हूँ तैयार
होने को,
या सारा
हो चुका हूँ
मैं!
ख़ुद से ही
हूँ निकल रहा
भीतर ही
समाता हूँ मैं,
समझ का धोखा है
वक़्त
न आता न जाता हूँ मैं!
शौपिंग की दीवाली से
जो की
अपने
जीवन के डिप्रैशन से
आँख मूँद
उभरने की
कोशिश,
औंधे मुँह
एक ही रात में
और धसा
ज़माना सारा!
विविध
विचारों के
फूल ही फूल
वचन कर्म के
मार्ग में,
कैसे चलूँ
सोचूँ
कहूँ!
कहाँ रखूँ
कथन के पाँव!
सत्य की
ज़मीन कहाँ है!
घरों
के घोसलों से
निकल कर आते हैं
कहाँ कहाँ से
परिंदों के
उतावले बच्चे,
करते हैं
एक पंख से
उड़ने की कोशिश
चीलों के
आसमानों में!
इंसां
तेरी कर्तव्यनिष्ठा और कीमत की
अगर मगर पर
अब
मगर ही मगर है,
सुना है
मगरों को अब दिया है
इंडोनेशिया सरकार नें
जेलों की सुरक्षा का
जिम्मा!
मत छीनो
रानी से
कोहिनूर,
कहीं
उतार ही न दे
ताज
बिना उसके,
नागरिक
एक आम,
नाराज़गी में,
बन न जाये!
भिगो
मौन के पानी में
मिट्टी की देह का दीया
एक पहर,
पोंछ
सुखा
निश्चय के कमरबन्द से,
बाट
श्रद्धा के हाथों से
आत्मा की बाती,
डाल समर्पण का घी
जला नाम की लौ
कर अहम् की अमावस्या में
मुक्ति का उजाला,
कर दीवाली
जीवन सारा।
क्यों न
मनाई जाए
किश्तों में
दीवाली,
कहो
ख़्याल कैसा है!
एक दिन
के
जश्न ए शाहकार
के ऐवज़
साल भर
के अश्कों
से इनकार,
मेरे यार
कैसा है!
दिख रही हैं
जूतों में
आपके चेहरे की
झुर्रियाँ,
इस पर भी
लगायें
क्रीम
हर रोज़
तो
हो उम्र दराज़
छवि की
आपकी!
पूरी रात
लगाई है
सूरज नें
उगने में,
तुम्हारे
देर से
जागने से
कहाँ
सुबह
देर से होगी,
सो लो अभी...
काग़ज़ के
वाद्ययंत्र
की काली लकीरों
की तारों को
छेड़ती है
जब
तरतीब
लय
अपनी ही धुन में
कलम की
उंगली,
सुनती है
आँखों को
अक्षरों की
क्या मधुर
रागिनी!
पत्थर हटाया
तो काग़ज़
उड़ा,
ध्यान हटाया
तो संयम
गिरा,
उड़ने दे
काग़ज़ों को,
अपना वज़न
तलाशने दे,
थकने दे
भटकनों को,
घर की याद
आने दे!
रिसती हैं
बूँदें बन
कूल्हों में,
बावड़ियाँ
भरती हैं,
ज़माने
को दिखाने
सागर की तड़प का
खेल,
नदियाँ
क्या क्या
करती हैं!
रिसती हैं
बूँदें बन
कूल्हों में,
बावड़ियाँ
भरती हैं,
ज़माने
को दिखने से
पहले
नदियाँ
क्या क्या
करती हैं!
काले
लम्बे
चोगे
के नीचे
ढके अरमानों के
नक्शीन सैंडल,
न चढ़े
कोई
मोटरसाइकिल की
पिछली सीट पर
उचककर
तो ख़ुद के सिवा
कौन देखे!
रश्क़
करता है
यद्यपि
देख
गुज़रता
स्वच्छन्द धूमकेतु,
हर गृह
क्यूँ
चाहता है
बनना
आपने सौरमण्डल की
धुरी!
मैंने तो
सहानुभूतिपूर्वक
नुक्सान रोकने हेतु
ही कहा था
कि भाई साहब
गिर रहा है
पल पल बाद
आपके मुँह से
साफ़ सड़क पर
थूक,
वो तिलमिला के
तपाक बोले-
दिखता नहीं आपको!
गिर नहीं रहा
ख़ुद थूक रहा हूँ!
कृत्य के
नृत्य में ही
छू ले
दिशायें
आकाश
पाताल,
भंगिमाओं
के पाश में ही
जी ले
मुक्ति का उत्सव,
इंतज़ार न कर!
किस किस तरह से
होती है
किस किस पर
प्रभु की कृपा,
कहीं
खेतों पर होती है
बरखा,
किसी का
कूआँ भरता है!
ज़रूर सीखता मैं
आपसे
बहस का सबक
उलझता आपसे,
गर न जानता
कि ज़िन्दगी की परीक्षा में
इसके
अंक ही नहीं हैं!
गुलेल की तरह
खिंचती
मेरी
तलाश,
बच निकलने में
हो पाती
कामयाब
मेरी नाकामी,
है सोचती
छिपी छिपी,
“काश!"!
बेल से
शहर थे
पुराने
सारे,
मिलती
जहाँ
कोई
आज़ादी की सड़क
लिपट
बढ़ जाते,
हैं
पेड़ सी
आज की
नई बस्तियाँ,
जड़ों के अतीत से उठी
तनों की
शाखाओं से निकली
डंडियों की गलियों के
पत्तों से मकानों
में बसी।
अतीत
की
खुशबुओं
से भरे
प्रमाणपत्र
मैं आज
गंगा में
बहा
आया हूँ,
आग
सूखे हुए
माज़ी
के उजाड़ों में
लगा आया हूँ!
निर्वाण
यहाँ भी
था,
वहाँ
क्यों
गया?
पाश
वहाँ भी थे
जहाँ तू गया!
आब ओ हवा
की नई
चाबी से
खोलना था
जकड़न का ताला
तो ठीक,
तालों की
दुकानें
वहाँ भी थीं
जहाँ तू गया।
बना
परभाषा
भोजन
पहरावा
वास्तू
उपभोक्तावाद
रंग रूप
तौर तरीकों
सलीकों
को
अपने
अंगवस्त्र,
ओढ़
संस्कृति का
दुशाला
पूछते हो
कि हम कौन हैं!
अरबों ख़रबों
जीवाणुओं का
भगवान है तू
रहते हैं
जो तेरे जिस्म के
ब्रह्माण्ड में,
बता दे
उन्हें
कि उनसा ही है
तू,
अपने
ब्रह्माण्ड का
अणु!
सुन रहा हूँ
अब
ख़ामोशी से
ऐ कुदरत!
तेरी हर आवाज़
कानों
आँखों
चमड़ी के पोरों से,
कितना
बोला हूँ मैं नासमझ,
भरा
आकण्ठ
अपने शोरों से!