आभार
विष्णु भगवान् का
जो
नहीं होते
अब
अवतरित
राजाओं की
देह में,
देते हैं
अब
यही
आशीर्वाद
बिन दिए
लोकतन्त्र को।
आभार
विष्णु भगवान् का
जो
नहीं होते
अब
अवतरित
राजाओं की
देह में,
देते हैं
अब
यही
आशीर्वाद
बिन दिए
लोकतन्त्र को।
आसमान में
मत बिठा
ख़ुदा अपना
कि अंतिरक्ष से
तेरे महल
दिखाई ही न दें
उसे
धूमकेतू
गिराने से पहले,
रख
उसे
अपनी
दीवारों के
बीचों बीच,
भले
तेरा
कुछ न छिपे।
हलवाई जी,
देना
ताज़ा समोसा
और गर्म जलेबी
पलेट की बजाय
पुरानी अख़बार
के टुकड़े पर ही
रख,
चार
छूटी
खबरें ही पढ़ लूँ
चाय की चुस्कियों
के साथ।
लौटाना ही था
क़र्ज़
मुझे
तो नाहक
इतनी देर क्यों!
नज़रें चुराने के फिर
इलज़ाम क्यों,
एक ज़मीर के
दस बार
क़त्ल का क्या!
छोटू
अब
छोटू नहीं रहा था,
हो गया था अब
चौदह लीटर के कुक्कर से भी
ऊँचा,
माँज सकता था
हाथों के माँजे से
ढाबे का
बड़े से बड़ा
बर्तन,
भरने
मुठ्ठी से छोटा
सिकुड़ा पेट।
इस
विशाल
चीड़ के पेड़ की
दर्जनों शाखाओं के रास्तों पर
सैकड़ों टहनियों की गलियों में
हज़ारों पत्तियों के घरों की
लाखों छिद्रों की खुली खिड़कियों में झाँकती
शाम की चीखती हवायें
याद दिलाती हैं
वो
बसा बसाया शहर
जो
छोड़ आये थे कभी
होते ही शुरू
गृह युद्ध।
चलो
बढ़ें
आगे,
मन्ज़िल
मेज़बानी से
उक्ता चुकी,
निकलें
मंज़िलों रास्तों
से आगे,
ग़ैरतमंदी ^
से जीयें।
^आत्मसम्मान, self respect
ख़ुदा
को होगी
यकीनन
हमदर्दी
मुझसे
पूरी,
होगा बंधा
ज़रूर
कर्म ओ फ़र्ज़ ओ नसीब से अपने,
मजबूर होगा।
मेरे ज़हन
के कमर्शियल काम्प्लेक्स
में है
एक
सैंकटम् सैंकटोरम्,
अभी भी
जाता हूँ जिसमे
तो
अहम् का
सर ढककर,
सब ब्राण्डों के
जूते उतार।
लिख जा
अपनी
बेबाक
आत्मकथा
जाने से पहले,
दे न दे
मौका
ज़माना
बाद में भी
तुम्हें
रखने को
अपना पक्ष,
ख़ुदा
न समझे।
हर बार
जाता हूँ
जब भी
हलवाई की
दुकान पर,
पुराने वाला
"छोटू"
नहीं मिलता,
लाले की
कपड़ा-रहना-खाना फ्री वाली
नौकरी
कर देती है
बच्चे को
एक दो महीनों में ही
बड़ा,
उसके जाते ही
अगले "छोटू" को
मिल जाती है
उसकी जगह।
एक
आतताई के
निधन पर
सोचते हो
कि कुदरत का
न्याय हुआ है,
उसी
न्यायालय में
बैठे हैं
कितने,
स्टे लेकर,
ये भी
पता है!
राजनेता
खिलाड़ी
सितारे
समाजसेवी
साइंसदां...
सब
बेचते हैं
आपनी अपनी
मैगज़ीन
ख़ुद ही,
आते जातों को
दूर से ही
सम्मोहित कर,
वो
बैठता है
चुपचाप
मजे से
धूप में
सुबह से शाम,
कमाई करता है।
दूरदर्शन के
एंटीने पर
केबल का डिश
कितना
भारी पड़ा!
इस कदर
गिरेगा
समाज की छत पर
पश्चिम का आसमाँ
सोचा न था।
पड़ गई है
गर
धुंधली
मुमताज़ की याद
तो भी
ताजमहल को
यूँ
अधूरा
न छोड़िये,
हज़ारों
मुमताज़ों ने
इस दौरान
तोड़ दिया है
दम
थे
जब
यहाँ
मसरूफ़
बरसों से
उनके
कारीगर शाह जहान।
हज़ारों गीत
सैंकड़ों खबरें
दर्जनों आवाज़ें
कई पैग़ाम
हैं
इस समय
लटके
घुले
मंडराते
मेरे ऊपर
आसपास
हवा में
मगर,
इस वक़्त
नहीं हूँ
उपलब्ध,
हूँ
आपनी माँद में,
बिन ध्यान के
ध्यान में,
शून्य से भी
मुक्त।
नहीं
ज़्यादा
मैगा पिक्सल
मेरी तस्वीरें
आपके
कैमरे की तरह,
पहुँचेंगी
मगर
फिर भी
काफ़ी भीतर,
भले
हैं खिंची
लफ़्ज़ों से
सादे!
जीवन के
समंदर में
डूबने से
जब जब
लगा डर,
बना ली मैंने
कोरे कागज़ की
कश्ती
और
कलम के चप्पू से
किनारे तक
खे ली।
काश
आज
कोई
तब तक
रहे बजाता
मन्दिर का
घण्टा,
जब तक
न हो जाएँ
खामोश
मेरे
सारे ज़हनों की
सारी परतों की
सारी
घण्टियाँ।
हवा में
फड़फड़ाता
ध्वज
आज भी है
मेरी
समझ से बाहर,
इंसान की
कुदरत पे है
फ़तह का
सूचक,
या कि
उसके
प्यार से भरे
आत्मसमर्पण,
आलिंगन
आमन्त्रण
आह्वान का....
रेत को
नहीं मलाल
बस एक ही मुट्ठी हो
इधर उधर,
है उसे
रेगिस्तान जितना
इत्मिनान
बनकर
मज़दूर के बच्चे
के नन्हें हाथों
के खेल का हिस्सा,
जला उसकी
बची
कोमल त्वचा
ज़रा सी और,
कर उसे
कल के लिए
कुछ और पक्का।
दूकानदार के
बर्ताव से
पहले ही
अध्यापक ग्राहक का
मन
उखड़ा उखड़ा सा था,
दूकान के
छोटे से
नाम में भी
दो दो
मात्राओं की थी
त्रुटि।
होता
अपनी मर्ज़ी का मालिक
तो
मुस्तक़बिल
चुनकर
पहनता,
इन्सां के
बुत ने
वही पहना
जो दूकानदार नें
शोकेस में पहनाया।
दीवारों पर
चिपकाये
पोस्टर
तो चमके
वो
अर्श में,
गोंद से
चिपके हैं
आसमान में
सितारे जो
वहाँ तक
पहुँचे हैं...
तेरे
पन्नों की
काया से
दूर हूँ तो क्या,
तेरे
लफ़्ज़ों की
गूँज से
बधिर हूँ तो क्या,
ग़ौर से
देखता
मेहसूस करता हूँ
तेरी क़ायनात की
भंगिमायें,
तेरा
मुखवाक़
समझता हूँ।
रंगकर्मी!
जानता हूँ
तेरे
मुखौटे का राज़
था मेरे पास भी
एक,
आया था
तेरे ही
शहर से
कोई बेनकाब,
मुझे
हौसला दे गया।
रख
अपनी बात
अपने ही मुहँ में
अभी,
लाग
लपेटले
अपनी ही
ज़ुबान से
कुछ देर और,
शायद
आ जाये
तब तक
पीछे से
तेरी होश,
रोक ले
तुझे|
उतरकर
आसमाँ से
दबाई हैं
हौले से
जो तूने
मेरी उंगलियाँ
नोकदार
नन्हें पंजों से
अपने,
उठी है
बाद मुद्दत
एक सिहरन
जो
नसों से
कलम तक
गई है।
चाँदी का
प्याला
जब प्यार से
भर जाए
तो चाँद
बनता है,
कोई बिछड़ा
जो चाहे मिलना
तो सितारा
बनता है...
मेरे शब्दकोश में
थे तो
वही वही
सब लफ़्ज़
आज भी
लेकिन,
कोई तरतीब
जज़्बातों की
जो अबके
न बनी,
कारवाँ
न चला...