संवारकर बाल
कंघी से
तूने
मंशा जताई है,
सुलझाना चाहता है तू
सब उलझनों
के खम,
निराशा उक्ताई है|
ज़िन्दगी
जानता हूँ
तू बहुत दूर निकल जायेगी,
पीठ पर बाँध मुझे
कहाँ से कहाँ
पहुँच जाएगी,
फिर आज से
मोह है या डर मुझे,
क्यों छूटना भी चाहता हूँ
और नहीं भी!
बम फटा है कोई
मगर
पन्ने पर नौंवें,
ज़लज़ला कोई उठ कर थमा है
पास ही के सफ़े पर,
हुआ है फिर एक मुज़ाकरा
पन्ने पर दूसरे,
कोई गुप्त समझौता चुपके हुआ है
चौथी दफ़े पर,
पाँचवें पन्ने पर किसी ने की है
पुरज़ोर आवाज़ बुलंद,
छठी तह में अभी तक दबी है
नाउम्मीदी लौ जलाकर,
बीच के पन्नों में दिलाई है किसी नें
होश की नसीहत,
इश्तहार बन बिकी है हक़ीक़त
अगले ही पन्ने पर,
अंत से पहले
की है
ज़िन्दगी ने
खेल बन
दिल बहलाने की एक दिली कोशिश,
हाशिये की आवाज़ों ने
तस्दीक की है,
आख़िरी पन्ने पर हुई है
एक नई शुरुआत,
पहले पन्ने पर जिसको
चुनौती मिली है।
हे ईश्वर,
तुमने गाय को
बेज़ुबान बनाया
मर्ज़ी तुम्हारी,
रोटी और
गत्ते में
मगर
फ़र्क तो समझा देते उसे,
मेरे मालिक!
एक मनीप्लान्ट था
जो छूने को था
छत,
और एक व्यापार था
जो ज़मीन से उठने को
राज़ी न था,
काश
घूरा होता
व्यापार को भी
दिन रात
मनीप्लान्ट की तरह
लालाजी नें।
होनहार था बड़ा,
यकीनन जानता होगा
सुलगाना आग
सीली लकड़ियों में भी,
होता न
इसी का
अंतिम संस्कार
तो शमशान के
भीगे लट्ठों का भी
ढूँढ लाता
कोई इलाज,
मज़दूरी की तरह
आग भी आज
इसे
देर से मिलेगी
सम्भवतः।
वीरजी,
झोले के अंदर
कुछ नहीं है,
खाली है,
बाक़ी की उम्र भी अगर
रहोगे ढूँढ़ते भीतर,
टटोलते
खंगालते रहोगे,
तो भी
नहीं मिलेगी
इसमें
कोने में भी,
वीरजी,
मानो मेरी बात
झोला ही
ज़िन्दगी है।
उड़ते
बैठते
विचरते हैं
बेख़ौफ़
रिआया के परिंदे
सचिवालय में
छुट्टी के दिन,
नहीं होती
जहाँ
उन्हें
इजाज़त
बाक़ी दिनों
पर भी मारने की।
घटनाओं के ताप में
वक्त के चूल्हे पर
मजबूरी के चिमटे में
नियती के हाथ नें
तुम्हें
पका ही दिया...
बिना नमक के भी
अब नमकीन हो,
स्वादिष्ट हो,
पौष्टिक हो,
ईश्वर का
प्रसाद हो!
उन लाखों तस्वीरों का क्या
जो खींची हैं जीवों नें
आँखों से
ज़हन में रखीं हैं,
कितनी परतें हैं दुनिया की
कहाँ कहाँ रखी हैं!