नुक़सान
हो हो के वी
क्यों
फ़ायदा
हो रेहै?
ए
की
हो रेहै,
ए
क्यों
हो रेहै!
सोच
रेहाँ
ऐ जिस्म
कद तक
चलेगा?
सोच
रेहाँ
इस तों
बाहर
मैनूँ
किवें
लगेगा?
सोच
रेहाँ
फ़ेर
की
सोच्या कराँगा?
सोच
रेहाँ
फ़ेर
सोच
पाँवाँगा
वी या नहीं?
इस
जिल्द
से निकले
सफ़े
अब
कहाँ होंगे?
ख़ाली
दवातों
सूख़ी कलमों
के हर्फ़ उठाये
कहाँ उड़े
गले
गुमे
दबे होंगे!
इस
समाज की
बीमारियाँ
अब कहाँ
पैरासीटामोल
से दबेंगी,
एंटी बायोटिक
दे दीं
जल्द
तो ठीक,
वर्ना
सर्जरी
या आग में
थमेंगी।
हे ईश्वर,
तू मुझमे है
या भेड़ में
चरवाहे में
या चारे में?
भूख़ में है
दिनचर्या में
या नज़ारे में?
अपने होने के वादे में है
या मेरे होने के छलावे में?
चलो
आज
पैसों के दम पर
कुछ ज़िंदगियों से
खेलें,
चलो
दिलवायें
डोमिनोज़ के खाली गत्तों पर
कुछ खुरच खुरच लिखते
उन गरीब बच्चों को
क़िताब पेंसिलें,
फिर किनारे बैठ
नियती का चेहरा देखें!
सटाये
दरवाज़ों से
कितने
लठ्ठे,
बन्द खिड़कियों पर
रख
मोटे पल्ले
ठोकीं
लम्बी कीलें
कितनी,
सरकाये
कोशिशों के
कितने
भरे भारी
ट्रंक अलमारियाँ,
फिर भी खोल
घुस आया
भीतर
वक़्त
जिसे रोकता रहा मैं।
दुनिया
तेरी थ्योरी से नहीं
प्रैक्टिकल की मर्ज़ी से
चलेगी,
प्रैक्टिकल
चलेगा
बेशक
थ्योरी के हिसाब से,
वो फर्माबर्दार
मगर
प्रैक्टिकली चलेगी।
बार बार
उठते सूरज ने
पूरब की हवा का
दम भर
चोटी की
शफ़्फ़ाक़ बादल
चुन्नी सरकाई...
हर बार
दिखी
कुछ और
ढलानों पर
बर्फ़ की चाँदी,
हर बार
वादी के चेहरे पर
मुस्कराहट की सुबह
कुछ और खिली।