Sunday, August 30, 2015

की? क्यों?

नुक़सान
हो हो के वी
क्यों
फ़ायदा
हो रेहै?


की
हो रेहै,


क्यों
हो रेहै!

सोच रेहाँ

सोच
रेहाँ
ऐ जिस्म
कद तक
चलेगा?

सोच
रेहाँ
इस तों
बाहर
मैनूँ
किवें
लगेगा?

सोच
रेहाँ
फ़ेर
की
सोच्या कराँगा?

सोच
रेहाँ
फ़ेर
सोच
पाँवाँगा
वी या नहीं?

कहाँ

इस
जिल्द
से निकले
सफ़े
अब
कहाँ होंगे?

ख़ाली
दवातों
सूख़ी कलमों
के हर्फ़ उठाये
कहाँ उड़े
गले
गुमे
दबे होंगे!

आज़ाद

दरवाज़े
बहुत
हुए बन्द,
हम
क़ैद
भी हुए,

दीवारों को
गले लगा,
फिर भी
हम
उस पार
आज़ाद हुए!!!

Sunday, August 23, 2015

उमर

किते
पै न जाण
गश
मैनूं
यकदम वेख़ के
बुढ़ापा
अपणा,

इक इक दिन
करके
रब्बा
उमर दराज़ करीं!

Wednesday, August 19, 2015

जल्द

इस
समाज की
बीमारियाँ
अब कहाँ
पैरासीटामोल
से दबेंगी,

एंटी बायोटिक
दे दीं
जल्द
तो ठीक,
वर्ना
सर्जरी
या आग में
थमेंगी।

ख़लल

उनकी
ग़रीबी में
मैंने
ये क्या
ख़लल
डाल दिया,
ख़ुश थे
अपने
हाल में जो,
क्यों
हाल अपना
दिखा दिया।

ख़बर

तेरे
सोने के बाद
सोया,
तेरे
जागने से पहले
जगा हूँ,
शहर
तुझे
मेरे
आने की
ख़बर भी है
या नहीं।

जादू

अभी भी
आता है
इस गाँव में
हर रोज़
सूरज,

ऊपर से
गुज़र जाता है
डाल कर
जादू से
हर कण में
ख़ुद को...

वादी

भर
ख़ुद को
मौन के नाद से,

ब्रह्माण्ड की
गूँज की
वादी बन।

बदलाव

न बदल
ज़माने को
कहीं तू
खो न जाये,

ख़ुद को
संवार ले,
शायद ज़माना
बदल जाए।

छलावा

हे ईश्वर,
तू मुझमे है
या भेड़ में
चरवाहे में
या चारे में?

भूख़ में है
दिनचर्या में
या नज़ारे में?

अपने होने के वादे में है
या मेरे होने के छलावे में?

ज़िद

ख़ुदा को
इससे करीब
देखने की
ज़िद न कर,
तेरी ख़ुदी की
मासूमियत जायेगी,
मेरा ख़ुदा जायेगा।

सामान

रूहों को
उठाकर
चलें हैं
देखो
कितनें
जिस्म,

गधों से
लदे हैं
कीमती
सामान से!!!

Monday, August 17, 2015

शुक्र

शुक्र है
समेटते रहने की
सलाहें
हमसे
मानी
न गईं,

एक उम्र
भी तो
हमसे
बासलीका
सम्भाली न गई!

तलाश

ख्वामखाह
खुश रहने की
सूरतें
हज़ार थीं,

बामुशक्कत
तलाशीं
ताउम्र
मायूसियाँ
हमनें!

फुर्सत

ताबूत में
सोचने को
हज़ार बरस
मिले,

जिन्हें
रुकने की
फ़ुर्सत नहीं थी!

क़िताब पेंसिलें

चलो
आज
पैसों के दम पर
कुछ ज़िंदगियों से
खेलें,

चलो
दिलवायें
डोमिनोज़ के खाली गत्तों पर
कुछ खुरच खुरच लिखते
उन गरीब बच्चों को
क़िताब पेंसिलें,
फिर किनारे बैठ
नियती का चेहरा देखें!

Sunday, August 16, 2015

खिड़कियाँ दरवाज़े

सटाये
दरवाज़ों से
कितने
लठ्ठे,
बन्द खिड़कियों पर
रख
मोटे पल्ले
ठोकीं
लम्बी कीलें
कितनी,
सरकाये
कोशिशों के
कितने
भरे भारी
ट्रंक अलमारियाँ,
फिर भी खोल
घुस आया
भीतर
वक़्त
जिसे रोकता रहा मैं।

थ्योरी

दुनिया
तेरी थ्योरी से नहीं
प्रैक्टिकल की मर्ज़ी से
चलेगी,

प्रैक्टिकल
चलेगा
बेशक
थ्योरी के हिसाब से,
वो फर्माबर्दार
मगर
प्रैक्टिकली चलेगी।

Thursday, August 6, 2015

माँग

जब से
मैंने
माँगना
छोड़ा,

तेरी
बिन माँगे दी
हर चीज़ दिखी!

मना

ख़ुदा को
दिखाकर
डरा मत,

ख़ुदा ने
डरने से
मना किया है।

मुस्कुराहट

बार बार
उठते सूरज ने
पूरब की हवा का
दम भर
चोटी की
शफ़्फ़ाक़ बादल
चुन्नी सरकाई...

हर बार
दिखी
कुछ और
ढलानों पर
बर्फ़ की चाँदी,
हर बार
वादी के चेहरे पर
मुस्कराहट की सुबह
कुछ और खिली।