मत सजा
इस देह को
सामान की तरह,
बस
संवार के रख
किसी
वरदान की तरह।
कहाँ
कब
मज़हब की जंग
मज़हब से हुई है,
ये दासताँ तो
फ़क़त
सुनाई सुनी है,
जिस
फ़साद को दिया है
रंगरेज़ नें
मज़हब का रंग,
किसी सियासतदां
के हुक़्म की
तामील हुई है!
रहें
पत्नियाँ
हिंदी का पूर्ण विराम चिन्ह
और पति
फूलते रहें
अंग्रेज़ी के
फ़ुल्ल स्टॉप की तरह,
बहुत
ज़बर है
बेक़सूर ज़बानों पर
ज़हनों का!
दस कोस लम्बा है पानी
मटके में
जो लाई हूँ मैं
बड़ी दूर से,
जिव्हा की हथेलियों से
नापना इसे,
पलकों की अंजुलियों से
पीना।
कनस्तर
गठरी
थैला
बोरी
बस से
उतार लेने के बाद
कंडक्टर की सीटी सुन
नीचे
पीछे खड़े
बेटे नें
कहा
"माँ, दीदी को भी तो उतारिये!"
रिज मैदान पर
देखा
आज
"भाभीजी घर पर हैं" का
करवा चौथ का
महा एपीसोड,
ख़ूब निकला चाँद,
और चाँद के जुगनूँ निकले।
ज़रूर होगी
टी ब्रेक
जो सुनसान पहाड़
की सड़क पर
कोई नहीं,
मिट्टी के बोरे में
खड़ी हैं अकेली
तीन विकटें
बैट्समैन बॉलर फील्डर दर्शक
कोई नहीं।
अंगरक्षकों की
दीवार
के पीछे से
आ रही है,
शेर की
दहाड़,
गर सामने
आता
तो मैं भी
ज़रा
उसकी मूँछ
के बाल गिनता।
ताज़ी सर्दियों की
फ़ुर्सत वाली गुनगुनी धूप में
बैठ नारकण्डा की चोटी पर बने
सुनसान रेस्टॉरेंट की
बड़े काँच वाली
ठिठुरती खिड़की के पास
जला हीटर
रख सामने
हिमालय,
करना सुकून का नाश्ता,
उफ़्फ़ कमाल!
ये सड़क पर बैठीं
गायें नहीं
कोई और होंगी,
कौन छोड़ता इन्हें
यूँ भटकने
भूखा मरने,
मातायें
ये नहीं
कोई और होंगी।
हो
अक्षरों के
पत्थरों पर बैठी
अकेली,
तर्ज़ की लहरों से
टकराती,
अर्थ के सागर किनारे,
ज़रूरी तो नहीं,
जिसे पढ़ें लाखों
और भीग जायें,
हो सकती है
ऐसी ख़बर भी
आहत कवि की कविता,
सम्मान लौटाने का
सहज निर्णय,
दिल की व्यथा।
ढकता है जो
गर्दन से पाँव तक,
फ़ाइटर पायलट का
जम्प सूट पहन लिया,
चुन्नी की जगह
नंगे सर को
हेलमेट से ढक लिया,
नमस्कार की जगह
उठा दायनें हाथ का अँगूठा,
फिर कर
तिरछा तेज़ सैल्यूट,
उड़ाने लगी हूँ
सुखोई,
करने आकाश से
आपकी रूढ़ियों की रक्षा,
आपकी बेटी
बहन
पत्नी
वनक्षा!
खड़ी हैं
खाली वृक्ष सी
मातायें,
इस बहार
जन के
सेब से
बच्चे,
ढूँढ़ती हैं
थकी टहनियों से
वो लाल
जो दूर मण्डियों में
कब के
बिक चुके!
राम नाम
के पत्थर
तैरने के इतिहास से
अचम्भित है दुनिया,
पृथ्वी तैरती है
बिन पानी
के समन्दर में,
कोई हैरान नहीं!
तीन स्टेज
रॉकेट है
मुक्ति के अंतरिक्ष में
जीवन का
प्रक्षेपण,
उठना,
मुड़ के देखना
और
फिर न मुड़ना।
साँभ साँभ
नज़रबन्द रक्खी
सोणी वोटी
नवें लाड़े नें,
ख़ुशबू और रौशनी
नूँ छड्ड के
सारी
वचारी
बन्न रक्खी।
मुझे दिख गए हैं
आपके क्रीया कलापों में
आपके दस्तख़त,
पढ़ लिया है मैंने
आपके मुस्तक़बिल का अहद
जो आपकी हथेली में है।
इतना
सोम्य
सुंदर
आकर्षक
मनमोहन था
सड़क किनारे
होर्डिंग पर छपा
वो चेहरा
कि
देख पढ़ न पाया
किस चीज़ का था
विज्ञापन।
उचकता है क्यों
उठ उठ कर
बार बार
छूने को आसमान,
फूलों को यूँ रौंदता है!
आसमान
कोई छत नहीं,
तेरे सर से शुरू है!
माधो,किशन और राधेश्याम नें
खेली सुबह सुबह
पहले तो
कैसिनो में
तीन पत्ती,
फिर सुलगाई चैन की बीड़ी
बैठ क्रूज़ लाइनर के कालीनों पर,
झाँकते सुनहरी खिड़कियों से
देखते अलंग के सागर का विस्तार,
छुआ जीते जी
सपनों के स्वर्ग का एक एक स्तम्भ,
स्टेनलैस स्टील टेबल, कॉफी मेकर, डिश वॉशर,
ओवन, तिजोरियाँ, शंडलीयर, लैंप,
परदों के पीछे
खोले बिन पानी के शावर
अपने तपते वजूद पर ,
नहलाया धुलाया
मन की इच्छाओं को मल मल,
फिर
कह अलविदा
फूँक उन्हीं बीड़ियों की चिंगारियों से आग,
जला उठा लिए अपने अपने गैस कटर
करने टुकड़ा टुकड़ा
कैसीनो ओशन लाइनर
टैक्सास ट्रैयर !
बीनता हूँ
गाँव की
वो
गाजनी मिट्टी,
शायद मिल जायें
तख़्ती से उतारे
बचपन की कलम के
वो काले मोती!
अंतरराष्ट्रीय पर्यटकों से
अनुरोध है,
करें पूरा
जल्द से जल्द
ये क्रूज़ सफ़र,
हो डी-कमीशन
ये पोत
इस आख़िरी सफ़र
के बाद,
ख़रीदे इसे
कोई गुजराती व्यापारी
पहुँचवाये भावनगर,
करें
गैस कटर्स से
इसके टुकड़े टुकड़े
ये मज़दूर
और भिजवायें
पीछे बिहार में इंतज़ार करते
बीवी बच्चों माँ बाप मवेशियों को
इस माह के
पैसे।
न रख
इतने पत्थर
अपने वजूद की
टीन की छत पे,
तूफ़ान के डर से,
वो न आया,
तो यकीनी है
तेरा दब के मरना।
जिस तरह
अख़बार में
नज़रों ने
ख़बरें
चुन चुन कर
रुक रुक कर
पढ़ीं,
ज़हन नें
बनाईं
वैसी खबरें
ज़िन्दगी के सफ़ों पर
सोच के मुताबिक़।
परम् पूज्य
सदगुरुदेव
विद्या वाचस्पति
योगाचार्य
ज्योतिषाचार्य
पण्डित
डॉक्टर
आप हैं
पता चला हमें
लिखा देख
आप ही के नाम के आगे
आप ही के लिखे
और प्रायोजित
निमन्त्रण पत्र में,
पढ़कर
हम
यज्ञ से पहले ही
धन्य हुए!
टेक्नोलॉजी
जेड़ी बार बार
पैराँ च फसे,
ओहनूँ
ठुड्ड मार,
जेड़ी चल्ले
मिला
कदम नाल कदम
लावे पैराँ नूँ पंख,
ओहनू सीने ला!
प्रिय देव किन्नरों,
ग्यारह छोड़
इक्कीस हज़ार
करूँगा भेंट
आपको,
प्रथम,
देर से ही सही
माँगिये
बेटे की
बड़ी बहन का भी
नेग!
क्या आर्य राष्ट्र में
कभी न समृद्ध होगी
कला और अभिव्यक्ति?
रहेगी सदैव स्तुतिगान की घुटन
सत्य की परित्यक्ति?
देशभक्ति के नाम पर
राष्ट्र का ही ह्रास,
बाहरी,कभी अंदरूनी
तानाशाही की अभिशप्ति?
साँब के रख्यो
लथियाँ
गरदनाँ
इंसाफ़ दी
अमानत समझके,
किते
पै जावे
ज़रूरत
जोड़न दी
नवें सबूतां
दे मिल्लण ते!
कालख़ दी स्याई नाल
लिखया ए
आज़ादी दे चेहरे ते
ए केहो जेहा
बिना अक्खरां दा लेख!
की की पढ़ रई ए
वेख़् वेख़्
अनपढ़ दुनिया।
एस
शरियत दी पहोंच
एम्बैसियाँ महलाँ दी
दीवाराँ दे पार
नईं,
ओ
मुक़द्दस
शरियत
लेआवो
जेड़ी उड़ के जावे!
कदों तक
करेंगा
तरले
आपणे भविक्ख दे,
जेड़ा
रुलदा ए
तेरे पैराँ च
चिराँ तों,
पहलाँ
उस ग़रीब
अज्ज नूँ ताँ
पेयार दी भिक्ख दे!
जाती नहीं
हैरानगी
देख
ग़ुलाम नस्ल को
करते पलायन
आज़ाद देश से
उसी
ब्रितानिया
और कहते
उसी रानी की बेटी को
रानी!
अपनी
ज़रूरत का
सामान बाँध
और ज़िन्दगी की
ट्रैकिंग पे निकल,
ये क्या कर रहा है
तैयार
दुखों का
लाव लश्कर?
अब आपकी
"न" की
छिछली रावी ब्यास ही
बचायें तो बचायें आपको,
बड़ा भीषण
हुआ है हमला
हिंदुकुश के इरादों के ऊपर से
पीर पंजाल के
निश्चय दर्रे लाँघ,
आपकी जेब के
लहलहाते उपजाऊ समृद्ध मैदानों पर
चारों ओर से
अख़बार के पहले भीतर और आख़िरी पन्नों
के वज्ञापनों की सेनाओं द्वारा
अपने आकाओं के इशारों पर...
कितना
प्रेरणादायक है
बैठकर जाना
फ़्रंट सीट पर
बेटे बेटी का
ऑफिसर पापा
की ऑफिसियल कार में
ऑफिसियल ड्राइवर संग
स्कूल,
ढकी मगर लगी
लाल बत्ती की
मानसिक छाया में ,
करते करवाते
अपनी
और सबकी
प्रैक्टिस...
थूक
कमसकम
ज़रूर होगा
ज़िंदा ग़रीब के पास
पता था उन्हें,
फ़क़त
चार आने का
डाक टिकट
ख़रीदना था,
पैग़ाम पर
चिपकाना
मुफ़्त था।
सन्नी
तेरे आने से
पिशाचों को
मुक्ति मिली है,
किस किस
जिस्म में
घुट घुट
रहने को थे
श्रापित,
अपना सा
रहने की
हिम्मत मिली है!
क्रान्ति तों बाद
तूँ वीं
किते
आक्राँता
न बणीं,
कल्ला सह लवीं
नईं ताँ,
लक्खाँ ते
नवाँ कहर न बणीं।
नहीं
पहुँचा
फिर
डीपू पर
सस्ता राशन,
ग़रीब के बच्चे
की भूख़
मगर
ठीक वक़्त
बैठ गई
पलाती मार
पेट के
चूल्हे के सामने!
कभी बताना ज़रूर
माँ
कि किसकी दुआ
तुम्हें
हरगिज़ नामंज़ूर है,
तुम्हारे नाम की शय का,
तौबा,
किस किस
ख़ुदमुख़्तार
को ग़ुरूर है!
रख लें आप
बाढ़ पीड़ितों का
एकत्रित चन्दा
पास अपने
एडवांस समझकर
गर
दे इजाज़त
ज़मीर आपका,
कौन जाने
ज़रूरत में आपकी
आप तक
पहुँचे न पहुँचे!
न वेख
पिच्छे
मुड़ मुड़ के
बार बार
ऐवें,
वक़्त
बन्न चढ़ा ही देवेगा
तेरे माज़ी की पण्ड
तेरे ज़हन
दी पिठ्ठ ते!
दवात दे
समन्दर चों
भर भर के
कलम दी बुक्क
तरतीब नाल
सींच रेहाँ हाँ
सफ़ेयाँ दी रेत
गाओन्दा
हरफ़ाँ दी तर्ज़,
पढ़ लवीं
एनांनूँ
सुक्कण तों पहलाँ,
आस
मुक्कण तों पहलाँ!
कौन कहता है कि
ज़माने गुज़र गए,
छू रहा हूँ तस्वीरों में आँखों से
दिल की धड़कनों में सुन रहा हूँ!
हाट के व्यापारी
की तरह
जीने में
उन्हें
बड़ा
स्वाद आया,
न ज्ञान का पड़ा
अवांछित बोझ,
न बेजाह
धरम या संकट का
सवाल आया।
आपकी
हर महफ़िल
बिन हमारे
अधूरी है,
रंगों का इंद्रधनुष
है बिखरा बिखरा सा,
जोड़ों के हाशियों पर
फीके रंग भी
ज़रूरी हैं!
नैतिकता
की नज़र से
भेदती रही
आलोचना
की दुनिया,
अनैतिकता की
ना बयानी से
भीतर
झुलसती रही
संवेदना...
हमारे
चले जाने के बाद
किया क़ुबूल
उन्होंनें
हमारा
असर ओ रसूख़
उनपे,
हमारे रहते
वो हमसे
होड़ में रहे!
एक मुद्दत से
गुम
मेरा प्रिय
हाथी
ढूँढने से भी
जब न मिला मुझे,
रहने दिया
मेरी बिल्ली की आँख में
तैरता,
मेरे लापता
मुझमें।
रंग ओ बू में
गया
कहाँ तक
पत्ते का
लहू,
दुनिया
देखती है
जिसे
मिट्टी में मिला,
फ़िज़ाओं में घुली
उसकी दास्ताँ
किस से कहूँ!
बचे पैसों की
टॉफ़ियाँ चॉकलेटें च्विंगम
देती हैं
आज भी
बच्चों को
वही ख़ुशी
जो
कभी
देती थी
रेज़गारी,
ये दौलत
मगर
रहती है
कुछ पल
जो कभी
महीनों थी रहती...
हर
तजुर्बे को पी
बात को सुन
शै को देख,
इसी मिट्टी से
आए
शायद
तेरे हर्फ़ों के
फूलों में
रंग ओ बू!
हथेलियों में
ले जान,
पकड़ सींगों से
मुसीबत का बैल,
धसा निश्चय की मिट्टी में
जुगत के पैर,
उसी की ताक़त से
हरा
उसको!
नवीं नकोर
सवेर
छड गई ए रात
मेरी खिड़कियाँ दे बाहर,
अंदर
पर
अजे वी नें
मेरे
न जाणे
किन्ने
अनबीते
कल!
माँ
मेरे बूट हेठाँ
आ गई ए ज़मीन
तूँ फ़िकर न करीं,
मैं
साहाँ दे
लग गया हाँ कण्डे
तूँ फ़िकर न करीं,
कल्ला नईं आं मैं
मैनू वेखदी ए दुनिया,
मेरी खैर ख़बर दी
हुण
उडीक न करीं,
आसमान दी छत हेठ
पाणी दी चादर ते
मसाँ मसाँ लग्गी ए अक्ख,
मैनूं चुम्मी न मेरी माँ
मेरी नज़र न हरीं।
ज़रा
हिला के ताँ वेखो
ओस मूँदे लेटे बच्चे नूँ,
किते
सुत्ता
पेया ही न होवे,
साडे यूरोप दे वाँग
सुकून दी धुप च
सुनहरी रेत ते पेया
सुख ही न सेकदा होवे,
हो के
घरों तैयार
डुबदे माँ बाप भैण नाल
साजिश रच के
ज़मीन तो ओहले
सुपणेयां ते डुंगे पाणियाँ च तैर
साडी अर्थव्यवस्था च
घुसपैठ करदा
थक
डिग पेया ही न होवे,
ज़रा
हिला के ताँ वेखो
साडा शक़
किदरे
ठीक ही न होवे!
ये दुनिया
खड्डे में जायेगी
कभी कभी
लगता है,
फिर
सर उठा
जब
आकाश के
गहरे कुएँ
को देखता हूँ
तो लगता है
पहले से है!
चलो
सत्ता पक्ष
के गुंडों
के गुट से
जुड़ें,
करें
ख़ुद को
सुरक्षित,
लोकतांत्रिक
सरकार को
मज़बूत करें!
ब्रह्माण्ड के मेले में
फिरकियों के
खम्बे सी
हमारी दुनिया,
हर किसी की
ज़िन्दगी
घूमती
वक़्त की हवा में
अपनी अपनी
धुरी पर!
है मेरे पास
एक सरकारी नौकरी
की तजवीज़
ख़ास आपके लिए,
है जिसमे
आराम ही आराम की
गारंटी,
हाथ पैर भी जिसमें
शायद
हिलाना न पड़े,
कैसा हो
जो मुफ़्त का
पैसा भी मिले
इनश्योरेन्स का,
बस ज़हन में
मुर्दा बन
कुर्सी के कफ़न में
लेटना पड़े!
कहाँ है
मेरी जान
मेरे जिस्म में,
उड़ जाती है
हर सुबह
चिड़ियों संग
मेरे बच्चों के स्कूल
निगाह में
उनकी!
गाँव गाँव कहता था
किसी बिछड़े
की तरह,
काँव काँव
करता है अब
बैठा
शहर के
ऊँचे फ़्लैट
की बालकोनी में.
काश
जगाता
अलार्म
नींद से
माँ की तरह
फेर कर
बालों पर हाथ
चूम कर माथा
पुकार हौले से
मेरा नाम,
उतार बलायें,
बस
बेदिल
बेसरोकार
बदहवासी में
करता है शोर,
अपनी बला टालता!
बहुत कुछ है
व्यर्थ,
गिर जाना चाहिए,
चाहिए
खुला खुला सा
एक चाँद वाला
आसमान,
सितारे
कुछ कम चाहिए।
सैमसंग
अभी तक
संभाले है
बाज़ार के
दावेदारों में
अपना
वर्चस्व,
‛संजीव के' *
इस दीवाली
तू कहाँ है!
*शिमला के मशहूर सैमसंग शोरूम संजीव के एंड कंपनी के दिवंगत मालिक जो इस वर्ष एक एक्सीडेंट में मारे गए
क़ैदी
वो वाटर कूलर है
जो
पिंजरे के पीछे है क़ैद,
ग्लास उसका
ज़ंजीर से
बँधा?
या
हर
वो मानूस
जो बाहर से
बढ़ाता है
लम्बा खाली हाथ
बुझाने
आस की प्यास!
सवा सौ करोड़
देशों
से बना है
ये देश,
कुछ का
सैंतालिस उन्नीस सौ
आ चुका,
कुछ का
अभी
सत्तावन अट्ठारह सौ भी
आने को है!
पाँच बजे का
हूटर सुन,
आज का बच्चा
हैरान है,
उसे क्या मालूम
उसके राष्ट्र
के
कमर्चारियों की
प्रभुसत्ता का
सवाल है!
काँटे की टक्कर थी
गुलाब जामुन
और रस मलाई में
कि कौन
मीठा है
ज़्यादा,
खड़ा
दो पाटों में फंसा
बीच
मैं,
जीते
कोई भी,
मेरी तो
हार है,
हाय कश्मकश,
पीठ दिखा
भागूँ
या रहूँ
डटा
मैदान में
मैँ!
क्या फ़ायदा
तेरे भीख़ माँगने का
मेरे दोस्त,
गर मिलती है?
हमेशा
माँगता रहेगा
मुनाफ़े में
छोड़ न पायेगा!