पूरे
लावलश्कर के साथ
आया है
प्रधान जनसेवक का
ओवर कॉन्फिडेंस,
इनके फ़रमान को
प्रार्थना समझूँ
या ईश्वर की
हवा का पत्ता!
पूरे
लावलश्कर के साथ
आया है
प्रधान जनसेवक का
ओवर कॉन्फिडेंस,
इनके फ़रमान को
प्रार्थना समझूँ
या ईश्वर की
हवा का पत्ता!
काश होते
हाथों में मेरे
सुबह सुबह
उबले आलुओं की जगह
ग्लव्ज़,
तन पर
मैली बनियान की जगह
टी शर्ट,
पैरों में
घिसी चप्पल की जगह
स्पोर्ट्स शूज़,
तो क्यों न मैं भी
उस बच्चे की तरह
लगाता
हर रोज़
पूरे शहर का चक्कर
रेसिंग साइकिल पर
करने प्रैक्टिस,
पहने
चेहरे पर
वही
बढ़ते बच्चों का
कॉन्फिडेंस,
काश
ढाबा मालिक की जगह
मेरे भी
माँ बाप होते।
वैसे ही डरी
वैसे ही भागी वो
जैसे
मैं या आप भागते
यदि जान पे
बन आती,
कहाँ
सोचते
कि
इंसान की उंगली है
खेलती
हमसे
और चींटी हैं हम।
बारामदे में रखी
उस कुर्सी का नाम
मैंने
उम्मीद रखा है,
मिले
न मिले
वक़्त
उस पर बैठ
सामने की वादी में
आखों के रास्ते
होने को गुम
मलाल नहीं,
उसके होने में ही
मन को
समझा रखा है।
दो दो
नए पुल
और उनको
पिछड़े वर्तमान से जोड़ती
नई सड़क,
कैसे खुल गए
आवाम के लिए
उसकी सोई
क़िस्मत से उलट
उदघाटन के बिना?
नेताजी
नहीं रहे
या
डेमोक्रेसी को
शर्म आई?
श्याम पृष्ठभूमि में
देख
उस आकाशगंगा की
चमकती तस्वीर
अनायास ही
हुआ
बहुत दुःख,
लगा
जैसे
हो रहा है
वहाँ
कोई जश्न
और नहीं हूँ मैं!
हैं हर तरफ़
रास्ते ही रास्ते
फिर क्यों
या रब!
चौराहे सा है दिल?
समन्दर में
चहूँ ओर
हज़ारों लहरों के ईशारे,
एक ही जगह
भटकती
ख़ाली नाव सा है दिल।
बड़ा
उदास उदास सा है दिल,
इन दिनों
शोर में
सन्नाटे सा है दिल,
कर रहा है
क्या क्या
अपने फ़र्ज़ की तरह,
क़िस्मत की क़िताब से गुम
उखड़े सफ़े सा है दिल।
न भी रहा ज़िंदा
दीक्षांत समारोह तक
तो मलाल नहीं,
रूह ले लेगी
आकर
अर्थशास्त्र की ऐम. ए. डिग्री,
उसी के लिए पढ़ा
97 की उम्र में
मैं!
लम्हों से भारी
ज़िन्दगी
तू उठाएगा कैसे,
उठाये भी क्यूँ,
हर बूँद में है
सागर सारा,
पी इत्मिनान से यूँ।
हाँ
मैं जाणदाँ
मेरे बच्चे
तूँ मैंनूँ
याद करदैं बहोत
ते प्यार वी,
पर मैंनूं
इंज न दस,
अख़बार 'च
न छपवा,
फ़ेसबुक ते
न पा,
दिलों याद कर
बरसी मना।
पछताते तो
वो भी हैं
जो कर लेते हैं
ख़ुदकुशी,
उन्हें
मगर
नहीं मिलता
वो दूसरा मौक़ा
जो आपको
मिला है!
ओम्
बोलना नहीं था,
सुनना था,
रोम रोम में
दबा है
जो
युगों का सन्नाटा,
गूँज सुननी थी उसकी,
गूँजना नहीं था।
सूखे की ज़द में
क्या है ग़रीब देह की
माइलेज
पूछो तो ज़रा
आंकड़ों के यक्षो!
सौ मि ग्रा खून में
लाती है
बारह मील दूर से
पन्द्रह लिटर पानी!
नेकनियती
के उजड़ने,
बदनियती
के बसने का वर
इतिहास पर
महंगा पड़ा,
पाक रूहों को
हर ज़माने
बस्तियों से परे
रहना पड़ा।
ख़्यालों, उमंगों, भावनाओं
की ऊन का गोला,
ये दुनिया,
कविताओं के स्वैटर
पहन पहन
इतराती
साँसों की गुड़ियाँ।
ए
कित्थे रेहा
हुण
गुरु दा द्वार,
ए ताँ
जिमीदारा
निवास हो गया,
क़ैद करण दी
फ़िराक़'च सी
आसमान नूँ कौली,
इक भाण्डा
लंगर दी ईमारतों
बाहर हो गया।
उतारते रहो
साथ साथ
सर तक पहुँचती
फूल मालायें
कन्धों से,
उभरने तो दो
पहचान को
चाटुकारिता के कूएँ से
कि दिखे भी तो
भीड़ को
कि कौन हो,
जो लक्ष्य भी है
आपका।
किंन्नियाँ
वसाखियाँ
दीवालियाँ
ते नवें साल
आये ते चले गए,
हुण करदाँ
हुण तों करदाँ
जोश दे
उबाल आये
ते डुल गए।
कड़कती धूप में
पर्यटक थे कम
सो सारे दिन में
चार जमात पढ़े
भिखारी को मिले
एक दो कर के
बस बीस ही रूपये।
दिल किया उसका
कि भोजन के बजाये
आज जूस पीये,
दुकानदार से पूछी
जो पाउच की कीमत
तो कहा उसने -
बीस रूपये मात्र,
लौट गया भिखारी
खाने भोजन ही
सुन
अपने सर्वत्र को
मात्र।
कई साल
असी
एही सोचदे रहे
कि साडी क्लास दा ओ मुण्डा
बड़ा मतलबी,हंकारी ते कंजूस सी,
वी साल बाद हुण पता लग्गा
ओ किसे नूँ आपणा सैंडविच नहीं सी देंदा
क्यों जो ओस दे घर
विच लाण वास्ते
ना मक्खण, ना सौस
ना जैम सी।
इक हत्थ
दी दूरी ते
रक्खण दी
फ़िराक़ 'च है
दुनिया,
आपणी
ज़रूरत अनुसार
तैनूं
खर्चण दे
ख़्याल 'च है
दुनिया।
बेशक़
शामल होये
पाकिस्तान दी
वायु सेना च
सोलह नवें
थंडर जेट,
पर
अजे वी ने
घट्ट,
उस गिणती तों
जो साडे वेड़े
ज़ंग दी
परवान चढ़े।
फ्रिज दे करके
ही सी
ओ
पसीने पसीने,
किसे दे
ठण्डे पाणी दे ग्लास वास्ते
सी
पिट्ठ ते
चुक्की
लेजा रेहा।
छोड़ जा
गर्भ से
अपने ये सवाल
मेरे ज़हन की
कोख़ में
इस सावन,
शायद
जाएँ मिल
इसी के प्रसव में
मुझे भी
मेरे पतझड़ों के
जवाब।
है सख़्त
आवश्यकता
करें रक्षा
कुलीन आतताई
समाज की
बेक़ाबू आक्राँताओं से,
जब तक
जुटाये हिम्मत
भद्रलोक,
यदि।
हुण कौण
लावे लंगर
शामशानां च,
जगा छकावे,
मोयाँ नूँ
बिठावे इको पंगत,
केड़ी अग्गे साड़े
पछाण मिटावे!