न ओ
मंगता ए,
ते
न ऐ
कोई
तमाशा ए,
इंज
न सुट्टो
सिक्के
पैसे,
अर्पण नहीं
समर्पण चढ़ावो।
ये
इत्तेफ़ाक़ की बात
कि
पंजाब
इसे कहते हैं,
वो लोग
वो माहौल
वो खुशियाँ
अब यहाँ कहाँ,
वो बरकतों के दरिया
अब
कहीं और
बहते हैं।
धुल कर
क्या शफ़्फ़ाक़
सफ़ेद
चमक गई
चढ़ी रात में
ये भीगी वादी!
आसमाँ के
अंधेरों की नहीं,
दिल के सितारों की है
रूह की
ये वादी
आदी।
कहते हो तुम
कि
राजा के किले की
ये धज्जी दीवारें
बिना ईंट गारे के
बनी हैं,
पसीने की
उन नदियों का क्या
जो दर्जों दर्जों में
बही हैं!
रख
दिल पर पत्थर,
और
गुज़र जा,
हैं
और भी
लम्हें
इंतज़ार में
गुज़रने को।
बह जा,
ऐ दरिया!
लहरों में छिप,
मिलने
सागर से अपने,
रहे समझता
ज़माना
कि यहीं है तू,
दे जगह अपनी
किसी और
रवानी को।
कह दो
आसमाँ से
कि
आज
न बरसे,
रूह तक
सूखा है
मेरे वजूद का पृष्ठ,
आँसू न समझ ले
किसी
बूँद को,
सुलग न जाए!
लौटा हूँ
आज
बाद बरसों,
वहीं,
ढूँढने
वही लम्हा,
बनकर
याद की हवा,
करता है
मेरे ज़हन के जंगल में
सायें सायें,
बिना दिखे!
सताता है
मुझे
किसी नन्हें की तरह,
खेलता
मुझसे
आँख मिचौनी
हाथ मगर
आता नहीं,
न मिलना चाहे
मुझसे
न मिले
बेशक़ मुझे,
कोई कह दे
उसे,
रखे
मेरी उम्मीद
ज़िंदा,
लौट आने की
सिहरन
जगाता रहे,
जा चुका हो
भले ही
बहुत दूर
हमेशा के लिए,
खिलखिला मगर गूँजता रहे
मेरे वजूद की वादी में
कि
अभी आया
अभी आया।
पूरी सुराही
ज्ञान की
न सही,
एक प्याला ही
पिला दे,
ऐ वक़्त के दर
नहीं पूरी क़िताब
तो आज
एक सफ़ा ही
पढ़ा दे!