करनी ही थी
तो
काश
ख़ुदकुशी यूँ करते,
अपनी देह
साँसों
तमन्नाओं पर
छोड़ते दावा,
दुनिया के लिए
जी कर मरते।
Tuesday, September 27, 2016
यूँ
Monday, September 26, 2016
ठोकर
उस शख़्स को
और उठने से रोकने का
बस यही है उपाय
कि उसे ठोकर न मारी जाय,
हज़ारों ठोकरों से
बना है वो,
कहीं और
बन न जाए।
Friday, September 23, 2016
Thursday, September 22, 2016
बुक्कल
काग़ज़ी बुक्कल मार
चुप चुपीता बैठा सी ओ
चमड़े दियाँ दीवाराँ दे ओहले
लुक के
मार चौकड़ी,
मैं लभ के
जदों
"जा चला जा" केहा
ताँ बाज़ार जा
ख़ुद नूँ वेच
चा दा कप्प लै आया
वास्ते मेरे
मेरे दस्साँ दा
ओ पुराणा नोट।
Wednesday, September 21, 2016
दावतनामा
आपको
खून से लिखा
भेजेंगे दावतनामा
जब आपको
हम ख़ुद बुलायेंगे,
इसे
पैग़ाम ए जार* समझिये,
क़यामत को
कौन समझाये
हमारे दोस्त
हमारे कहे बिन
न आयेंगे।
*जार=पड़ोसी
Monday, September 19, 2016
तारिका
इतनी बड़ी
सिने तारिका
बम्बई से इतनी दूर
हिमाचल के दूर दराज़
गाँव आयेगी
भरी दोपहर
और वो भी
एक ढाबे वाली का
मन बहलाने
सोचा न था,
वो भी
बीस साल पुराने
ब्लैक एंड वाइट टीवी में,
अद्भुत!
Sunday, September 18, 2016
स्केच
ये सारी दुनिया
कहीं
एक स्केच ही तो नहीं,
नासमझ पछतावे
फैली स्याही,
और भय
मिटाने की
रबड़ तो नहीं,
किसके हाथ है
पेंसिल
दिखे तो,
कहीं
मैं भी तो
लकीरों में
एक लकीर तो नहीं!
स्टेडियम
स्टेडियम से निकलते
भीड़ देखी
तो सोचा
कि मैच
ख़त्म हुआ,
सीढ़ियाँ
उतर कर देखा
तो दर्शक दीर्घा के नाम पर था
दीवारों से घिरा
एक अंधेरा कोना,
और ऐस्ट्रोटर्फ़ के नाम पर
बस एक
चटाई,
शायद अभी भी
कार पार्किंग की वो बेसमेंट
असामाजिक ही थी,
ताश के खेल का
छुपा
खामोश
स्टेडियम,
सट्टे का अड्डा।
Saturday, September 17, 2016
Thursday, September 15, 2016
तितली
शीशे की दुनिया से
टकरा टकरा
फड़फड़ाती
रूह की
तितली को
आज़ाद करूँ
न करूँ?
जाने
यही खेल है
उसका,
या वाकई क़ैद है वो!