नस्लों
के फूलों
की डण्डियों से
हटाये जो भारी बस्ते
तो कुबड़े निकले,
सूरजमुखी
की कुदरत
के वारिस
समझदार
मजबूरियों के
लैम्पपोस्ट निकले।
नस्लों
के फूलों
की डण्डियों से
हटाये जो भारी बस्ते
तो कुबड़े निकले,
सूरजमुखी
की कुदरत
के वारिस
समझदार
मजबूरियों के
लैम्पपोस्ट निकले।
एक और एक
ग्यारह हुए
तो मुश्किलें
नौ दो ग्यारह हुईं,
उन्नीस बीस
कि कमी थी
इरादों में,
पूरी क्या हुई
कि पौ बारह हुई!
दिली ख़्वाहिश है
ज़माने की
कि वहाँ पहुँचे
जहाँ जाता है!
कोई बदल दे
जहन्नुम को
जन्नत में
दुआ है मेरी!
तेरे दर से
गर हूँ
ग़ैरहाज़िर
तो कहीं तो
हाज़िर हूँ,
तू भी तो
मुफ़लिसों के ख़ैरख़्वाह!
कभी
कहीं से हो ग़ैरहाज़िर
कहीं हाज़री दे!
जब जब भी मैंने
पूछा उनसे
कि क्या
जानते हैं वो
शान्ति का रास्ता?
बता सकते हैं मुझे?
शरीफ़ाना सा मुँह बना
उन्होंने
हर बार
खोला
बाज़ार का रास्ता!
ख़ामोश पर्बतों पर
ग्लेशियरों के सफ़ेद कम्बलों से रिसती
महावृंद बूँदों की ख़ामोशी
तिब्बत किन्नौर की गलियों में
सतलुज बन
क्या पुरज़ोर गूँजती है!
दुनिया समझती है जिसे
हज़ारों बरस से नदी
हाथ पकड़े अदृश्य बेटियों की
ब्रह्माण्डीय टोली है!
ज्योतिष नहीं हूँ
मगर देख रहा हूँ
भविष्य,
नहा धो
हो तैयार,
छोड़ पीछे
संयुक्त राष्ट्र के मसले,
बस संवार कंघी से
अपने ही सर के बालों की उलझनें,
सजा मुस्कुराते चिकने गालों पर
माँ के प्यार में भीगा चमकता बोसा,
निकल रहा है
गलियों से
जुड़ते सैलाब की तरह,
टाँग पीठ पर
आज भर बस्ते
स्कूलों की ओर...
आलोचकों नें ढूँढी
व्याकरण
मात्राओं की
त्रुटियाँ,
हमनें
सहज भाषा के
कच्चे पक्के
चावलों से
भावनाओं का
पेट भर लिया।
सरे आम
चौराहे पर
पेड़ से
टाँग दिए
सुबह सुबह
बाज़ार में,
तालिबान थे
इन्सां
उन
बेबस
केलों की
नज़र में!
देख
सुबह
क्या हो गई?
देखते ही देखते
दोपहर
फिर शाम हो गई!
होगी रात
तो कौन मानेगा
यही सवेर थी,
सुबह
किसे याद होगी
क्या रात थी!
रावण
कुम्भकर्ण
मेघनाद
से खड़े हैं,
हर शहर
कस्बे
गाँव
के आकाश में
मोबाइल टावर,
तरक्की का सेतू लाँघ
क्या क्या
पहुँच गया
लंका से
यहाँ!
बीनता हूँ
नदी का
सूखा किनारा
शायद कोई
ख़ज़ाना मिले,
दिखे कोई
पानी में उड़ता
क़ैद परिंदा,
कोई बदनसीब
डूबा
अफ़साना मिले।
क्यों बजाते हो
यूँ अटूट लय में
सुनसान बीहड़ की
इन सड़कों पर
ढोल घण्टियाँ
यूँ चलते चलते,
कौन देखता सुनता है
यहाँ!
-पूछा मैंने
नंगे पैरों की कन्धों से,
अजब तेज वाले
पसीने से तर बतर
वो मीठे
पके
कोमल चेहरे
मुस्कुराये
और बोले-
जानते हैं आप
किसे हैं उठाये
पालकी में
हमारे वजूद?
और
असंख्य हैं
जीव निर्जीव
जो रहे हैं
सुन देख
अपने प्रिय देव,
करते सिजदा
हर जगह...
कोई
उन्हें भी तो पूछे
जिनके नाम पर
ये बहस है,
क़ैद में ख़ुद को
चुनवाने की आज़ादी
है किसका हुनर
जिसका इतना असर है
तू जानता है
मेरे दिल की बात
ओ चाँद!
आज छत पर
बस एक मैं हूँ एक तू है!
ये किस इम्तिहान में
गिरफ़्त हूँ
ज़मीं पर,
खुले आसमाँ में तू है!
वो शब्द
अब कहाँ रहे मेरे,
किसी दिन
किसी लम्हे
किसी एहसास से उठी
किसी तरंग से काँप
स्याही बहा
कलम को बिना नदी की कश्ती बना
बिना बने
बने होंगे,
कहते कहते
मेरी बात
गए सूख होंगे,
मैं गुज़र गया
होऊँगा,
वो स्मारक बन
रह गए होंगे,
वो शब्द
अब कहाँ रहे मेरे,
कभी रहे होंगे!
ज्वारभाटे से
जोश के तीर
इरादे की कमान पर
सम्मोहन की प्रत्यंचा चढ़ा
तैयार तो थे
करने अपनी बुराइयों का दहन
क्षणभंगुर आत्म निरीक्षण के रावण,
लक्ष्य की पहचान
की अनभिज्ञता
के असमंजस में
किंकर्तव्यविमूढ़ता नें
क्षत्रिय अहम्
लाचार कर दिया।
अपने अंदर के किसी को
आज मारूँ,
अपने अंदर के किसी को
आज आज़ाद करूँ,
अपने अंदर के किसी की
भटकन भरी तलाश का
करूँ अंत,
कर सरयू किनारे
उसी घर का रुख़,
सुक़ून के बनवास का
शुभारम्भ करूँ।
शुक्र है
आपके दृष्टिकोण से
ये
बस
पीठ किया
टाँगें पसारा
मुँह फुलाया
नौ ही था,
आप पर
तपाक
उंगली उठाये
मेरे दृष्टिकोण के
थुलथुल
छः नें तो
अनबन की
छोड़ी ही न थी
कोई कसर।