सोचता हूँ काट दूँ उंगलियाँ
एक सी नहीं,
और ये बाज़ुयें
एक कहाँ, एक कहीं,
इन टाँगों का क्या करूँ
जाती है एक जो आगे तो दूसरी पीछे,
दो कान जो सुनते हैं एक ही बात
पर अपने सरीखे,
क्या करूँ इस देह का
जो इतनी विचित्र है,
कैसी होगी रूह
जिसका यह चरित्र है,
मस्तिष्क जब एक है तो विचार
इतने क्यों,
इतनी हैं सम्भावनायें
तो जीवन एक क्यों!
No comments:
Post a Comment