हराम दी कमाई 'चों नहीं
ज़रूरत मन्दाँ नूँ,
गिण के नहीं...
मोटर से ही उठा कर
ज़रा गिरा दो
ऊपर से
झरने की तरह पानी,
किसी तरह तो
उजड़ी जन्नत का
ये एहसास मिटे।
साधनों की तरह
खुशी की शर्तें भी
बड़ी कम थीं
ग़रीब के पास,
कम कोशिशों के बावजूद
वो कैसे ज़्यादा खुश था?
भगदड़ मच जाती
फैल जाती
अफ़रा तफ़री,
भागते इधर उधर
सब लोग
बचाने जान,
निकल आते
तुरत रक्षा बल के
सशस्त्र जवान
संभालने मोर्चा
मर मिटने को तैयार,
गर न होता
ये सायरन
सरकारी कर्मचारियों की
छुट्टी का
पाँच बजे वाला हूटर,
एमरजेंसी का होता...
मेरी सूरत पर थी
ज़माने की नज़र,
सीरत महफ़ूज़ थी,
तेरी खुदाई से ढकीं मैंने
बेशक़ीमती
परतें तेरे मानूस की...
टी वी की प्लेट में
मस्तिष्क के डाइनिंग टेबल पर
आखों के हाथ
झट परोस देता है
सोशल मीडिया का
नौकर
कलेजा मूँह को लाती ख़बरें
ठीक भोजन के वक़्त...
ज़मीन से
उसने
कोई सरोकार न रखा,
सिवाय
उस मोटे पेड़ की जड़ों का
जिसके तने पर
बनाया उसने
वो ट्री हाउस
स्वर्ग के आधे रास्ते,
लिए साथ
यक्ष के अंतिम सवाल वाला
साथी।
दिया था
जन्म
जिस तितली को
आपने,
सूख गए हैं
अब
उसके
रंग,
फड़फड़ा अपने पंख
चाहती है
अब उड़ जाना
बन्द क़िताब से उस,
आ
ढूँढ
खोलो
माज़ी का वही वर्क़,
कर जाओ आज़ाद...
उप
कुल
पतियों
की सति प्रथा पर
हतप्रभ
क्षुब्ध है
आज के हर राममोहन की रूह,
एक महाराजा की ताजपोशी
के घटनाक्रम पर
शर्मसार है
लोकतन्त्र के मत का
हर राजा।