हूँ इंतज़ार में
उस दिन के,
(काश! कभी आये)
जब
होकर मायूस
क्रिया कलापों से अपने,
कर बन्द मारना हाथ पाँव,
बैठी देखूँगा
लगभग सारी मानवता,
अपनी अपनी छत
अपने अपने आँगन,
उठाये कौतुहल से रिस्ते सर
देखते काले टिमटिमाते आसमान की ओर
सारी सारी रात
चुपचाप
एकटक
सोचते
कि आख़िर
कौन!
क्या!
क्यों!
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