चाय में दूध
उन्हें पसंद नहीं था,
चीनी
पहले से थी
पास उनके,
उठाई
चुपचाप
बस
बिखरी
चाय पत्ती
इधर उधर से
और
चली गईं
चींटियाँ।
चाय में दूध
उन्हें पसंद नहीं था,
चीनी
पहले से थी
पास उनके,
उठाई
चुपचाप
बस
बिखरी
चाय पत्ती
इधर उधर से
और
चली गईं
चींटियाँ।
मौत का
ख़ौफ़
रहने दो रिआया में
उठने न दो,
सरफ़रोश
न हो जायें
बचे
आग के दीये,
हवाओं से कहो
हद में रहो!
हाँ
रहता है
एक
पान का ग़ुलाम
चिड़िया की तरह
अंकों वाले
ईंटों से
ताश के पत्तों
के घरों में,
होते
होने देते
स्वयं की
गिनाई
छंटाई
बंटाई
दुनिया के जुए में
लत की तरह।
कौन
सुनता है
एक अच्छा
साक्षात्कार
सबेरे सबेरे
और वो भी
इतवार को,
यूँ ही
होता हो
दुर्लभ
आत्म साक्षात्कार
तो कोई
क्यों न करे!
जब भी
खींचा है
मुझे
हैरान तीर की तरह
मजबूरी की कमान पर
हालात की प्रत्यंचा नें,
लगा हूँ
सपनों से परे
निशाने पर
रह
कुछ देर
बेक़ाबू रफ़्तार पर
अनिश्चितता की पवन में!
लौट के आयेगी
हर वो शै
जिसे छुओगे
बिना पकड़े,
तितलियाँ
ख़ुशबू
साये हैं
ये किस्मतें,
तदबीरें नहीं हैं!
माज़ी के
क़ब्रिस्तान पर
खड़े हैं
इन्सां
तेरे हाल के
ताजमहल,
शुक्र के सजदे भी
उठते हैं
शिकायत की तरह!
मेरे ही हाथों में
पकड़ा
मेरी सोच का
काँटा,
मुझसे ही लगवा उसमे
मेरी ही तृष्णाओं का
चारा,
मेरी ही इच्छा से
पकड़ती रहीं
मुझे ही
मेरी इन्द्रियों की मछलियाँ,
मेरे ही
पाश के
समन्दरों में,
बेचने
मुझे
मेरे ही
बाज़ार में...
चल नीं माये
चल धी* वटा, *daughter
व्या आपणी जाई
ओहदे प्रीतम
किसे दी पाली
नूँ^ लेआ, ^daughter in law
चल नीं माये
चल धी वटा,
चल नीं धीये
चल माँ वटा,
पै किसे दी झोली
सुन्ने दिल दी बन्झ मुका,
वार के सुट्ट दे चावल सिर तों
नवीं भैण दे वेहड़े
असीसाँ दे दाणे पा,
चल नीं धीये
चल माँ वटा,
चल नीं भैंणे
चल कुक्ख वटा,
ला मेरी जन्नी आपणे सीने
आपणी गुड्डी मेरे मोडे ला,
फुल्लां रखिये
मत्थे चुमिये,
हंजू पुंजिये
शुकराँ पा,
चल नीं भैंणे
चल कुक्ख वटा!!!
कुछ सूखे
कुछ रिसते
पिम्पल्स की तरह लगे
पृथ्वी के शुष्क चेहरे पर
वो सारे
ज्वालामुखी
जो दिखे
स्तब्ध अंतरिक्ष यात्रियों की
नम आँखों को,
उस ऊँची
घूमती
स्थिर
यान की कक्षा से,
कितनी
सुंदर
लगी
अपनी जड़ ज़िन्दगी
उस आईने में उन्हें!
झड़े पत्तों
सूखी शाख़ों
के बीचों बीच था
मग़र अरमानों का
आम न था,
बहुत ख़ास था
वो सूरज
जिसे तोड़ लेने को
ललचाता था मन,
रूह के हाथों
मगर
आसान न था...
वो भी
रुक गया
देख
मुझे
रुका
पीछे,
मेरी तरह
उसने भी
जब देखा
हटाकर रास्ते से नज़रें
दिखीं हर तरफ़
मंज़िलें ही मंज़िलें!
देते हो
जिस खुशकिस्मती को
आवाज़
जाकर गली में उसकी
बन कर
भंगार वाला,
कुछ देर तो
रुक करो
वहीं
आस पास कहीं,
देने
उसे
वक़्त
ढूँढ ले आने को
तुम्हारी इल्तजा
का पिटारा...
कई हज़ार सालों में भी
नहीं आया
फ़क़त जीने का भी
सलीक़ा
जिस दुनिया को,
सोचता हूँ
कि क्या होगा
मुझे
वाकई दुःख
फ़ना होने पर उसके...
बहुत कुछ
कहना है आपको
आपकी
सुनने के बाद,
कोई दरार तो दिखे
चुभाने को
रोशनी की तार
बन्द दरो दीवारों की
तरतीब के बाद...
लंका क्या छोड़ी हमने
हर लंका वासी
आलिंगन को
आतुर है,
ऐ रावण
तेरी
"सुखी" प्रजा
रघुनाथ की
शरणागत है!
कितना
ख़ुश होगा
वो इंसां
जब मिला होगा
आख़िर
आराम का
वही बिस्तर,
जिस पर सोने को
हर बार था
ललचाता
रुक रुक
सड़क किनारे
उस
शमशान के आगे...
आज रात फिर
उस ट्रैफ़िक हवलदार को
घर पहुँच
भूख प्यास
नहीं थी,
दिन भर
फाँक कर जो आया था
सेर सवा सेर
धूल मिट्टी,
पी
फेफड़े भर भर
धुआँ!
साया ही साया हूँ
मैं कहाँ हूँ
इन दिनों?
हूँ अपनी
ग़ैर मौजूदगी में
मौजूद,
कहाँ कहाँ हूँ
फिर भी नहीं हूँ
इन दिनों,
उठाये है ये कौन
मेरा बोझ
और क्यों,
टूटे पत्ते सा
हवा ही हवा हूँ
इन दिनों,
पहेली का राज़ बन
अटकी साँस हूँ कोई,
ये किस जवाब का
सवाल हूँ
इन दिनों,
खामोशियों में गूँजता
वीरानों में जश्न सा
किस ज़ख़्म को छुपाता
कौन सा दबा दर्द हूँ
इन दिनों,
दिखती है मेरी रूह गर तुम्हें
तो छुओ ज़रा,
जिस्मों की दुनिया में सहमा
एहसास ही एहसास हूँ
इन दिनों,
परबत हैं सजदे में
आसमाँ समंदर है,
ये कौन सी है दुनिया
किस सफ़र में हूँ
इन दिनों,
गूँजती है मेरी आवाज़ कहाँ कहाँ
चुप हो कर भी बोलता हूँ,
अपनी ही तलाश में
मिलता हूँ किस किस से
इन दिनों।
चोरी चकारी
बढ़ेगी
तो होगा
आपके
नफ़े में
इज़ाफ़ा,
वर्ना
जागती दुनिया सदके
मुस्तक़बिल में
आपके
अंधेरे ही
अंधेरे हैं...
लाज़मी नहीं
कि आ जाये समझ
तुझे
हर बात
तेरी कोशिशों के बाद,
ज़ोर के
परहेज़ में हैं
जो करिश्मे,
कहाँ जायें?
है जो
मरी जा रही
आज
इतनी
ये दुनिया
तुझ पर
"नासिर",
टटोल तो सही
अपनी
हर रुकी नब्ज़,
कहीं जी तो नहीं उठा
आख़िर
तू!
ओस गली दे
ओस मोड़ ते
ओस सीमेंट दी बन्नी नूँ
फेर
यकदम वेख
कार दे
टायर ने
फट झुक के
ला लेया
अचनचेत
आपणे गोडे नूँ
हत्थ,
ओस दिन दी
नेरे च टक्कर
दी सट्ट
अजे वी सी याद
शायद
ओस बेज़ुबान नूँ।