करवाओ जो
पूरा दरिया पार,
तो कहे पर आपके
उतरें हम,
यूँ
किनारे किनारे
बातों में
न डुबाओ हमें!
करवाओ जो
पूरा दरिया पार,
तो कहे पर आपके
उतरें हम,
यूँ
किनारे किनारे
बातों में
न डुबाओ हमें!
हम बनाम वो
की बनिस्बत
हम बनाम हम की
निगाह से देखा
तो त्रासदी
कुछ और दिखी,
नरसंहार समझते रहे
जिसको,
जमात की
आत्महत्या निकली।
देख अपने ज़ख़्मों को
कभी अलग निगाह से,
तेरे गुनाह भी छिपे हैं
तेरी कहानी की पनाह में!
हैं अगरचे मुख़्तलिफ़
ज़मीनों के आसमान,
आसमानों की हक़ीक़त
उनकी हवाओं में है!
हाथ में
उठाता हूँ
पढ़ने को अख़बार
तो लगता है
जैसे
कंधे से पकड़ा है मैंने
सामने खड़ी
हर ख़बर को मैंने,
टैब में
पढ़ता हूँ
तो लगता है
बीच
बुल्लेट प्रूफ़
काँच की दीवार है कोई।
कर रहा था मैं
कोई बहुत ही
ज़रूरी बात
पाँच सात
लोगों से
आज सुबह
जब
जगा दिया किसी ने
गहरी नींद से,
लौटा
जो सोने फिर से
उन्हें
वहीं पाया
पर पहचान
न सका।
ਖੇਤ ਦੀ ਬੱਟ
ਤੋੜ ਕੇ
ਸੜਦੇ ਪਾਣੀ ਨੂੰ
ਨਿੱਕਾ ਜੇਹਾ
ਦਰਿਆ ਬਣਾ ਦਿੱਤਾ,
ਸੋਚ ਦੀ ਮੁੱਠ ਵਾਲੀ
ਹਿੱਮਤ ਦੀ
ਤੇਰੀ ਕੱਸੀ ਨੇ
ਕੀ ਕਮਾਲ ਕਰ ਦਿੱਤਾ!
बनाकर ग़ज़ल को ही
शम्माओं का निगहबान
हवाओं ने परवानों पर
बड़ा करम किया है,
आख़िरी साँसों में थी जो
आतिश ए तिश्नगी
आलम ए बेरुख़ी में,
फिर भभक उठी!
कहाँ
मानते हैं
अख़बार नवीस
मिले न जब तक
दिल भाती
सुर्ख़ी कोई,
कहाँ से लाये
रोज़ रोज़
ये शहर
वारदात नई।
दुनिया के हालातों
की चिंता किये बग़ैर
एक के बाद एक
उतरती रहीं
रात भर
धरती पर
बेपरवाह रूहें
पकड़ पकड़
चुनी देहों के पैराशूट,
रात भर
सरकारी
अस्पताल में
प्रसूतियाँ
होती रहीं!
काट गया
अनजाने में
जो रास्ता
बेक़सूर चाँद,
धरती नें देख
काली बिल्ली
दी गाली,
सूरज नें
चमकता फरिश्ता समझ
बलायें ली।
एक अलग
आसमाँ
माँगना पड़ा
चाँद को
आने जाने के लिए,
बूढ़ी धरती ने
ग्रहण कह कह
आते जाते
जब न छोड़ा
लताड़ना उसे!
ਮੈਨੂੰ
ਕਦੋਂ
ਮਿਲੇਗਾ ਮੌਕਾ,
ਮੇਰੀ ਬਾਰੀ
ਕਦੋਂ ਆਵੇਗੀ?
- ਕਿੱਥੇ ਸੋਚਦਾ ਹੈ
ਕੋਈ ਸਾਜ਼
ਜਦੋਂ
ਔਰਕੇਸਟਰਾ ਵਜਦਾ ਹੈ,
ਹਉਮੈ ਮੁਕਤ ਹਵਾ 'ਚ
ਖਲੇਰ ਸੁਰਤੀ ਤੇ ਵਾਲ,
ਆਨੰਦ ਦੇ
ਉਤਸਵ 'ਚ
ਝੂਮਦੇ ਨੇਂ
ਸਬ
ਰੱਬੀ ਤਰਤੀਬ ਨਾਲ,
ਹੁੰਦੀ ਹੈ
ਸੰਗੀਤ ਦੀ ਬਰਖਾ,
ਸਬ ਕੁਛ
ਜਿਵੇਂ
ਆਪ ਹੀ ਹੁੰਦਾ ਹੈ!
ਅਖ਼ਬਾਰ ਵਿਛਾ ਕੇ
ਰੱਖ ਓਸਤੇ
ਰੋਟੀ ਖਾਣ ਦੀ
ਓਹਦੀ ਆਦਤ
ਬੜੀ ਕਮਾਲ ਸੀ,
ਕਰ ਕਰ ਸ਼ੁਕਰ
ਪਾਉਂਦਾ ਸੀ
ਇਕ ਇਕ ਬੁਰਕੀ
ਆਸਵੰਦ ਮੂੰਹ ਚ ਆਪਣੇ,
'ਲੱਖਾਂ ਨਾਲੋਂ ਸੁਖੀ ਸੀ'
ਆਪਣੇ ਰੋਮ ਰੋਮ ਨੂੰ
ਸਮਝ ਕੇ
ਸਮਝਾਉਂਦਾ ਸੀ।
ਇਕ ਲੱਤ ਵਿੱਚ
ਹੈ ਲੰਗ
ਤਾਂ ਕੀ ਮੈਂ
ਲੱਤ ਵਾਲੇਆਂ ਵਿੱਚ
ਤੁਰਾਂ ਵੀ ਨਾ?
ਜੇ ਦੁਨਿਆ ਵਿੱਚ
ਹਰ ਕੋਈ ਏ
ਮਾਹਰ
ਕੀ ਮੈਂ
ਹੋਆਂ ਵੀ ਨਾ?
ਖੁਸ਼ਕਿਸਮਤ ਹਾਂ
ਅਸੀਂ
ਕਿੰਨੇ
ਹੈਮਲਿਨ ਦੇ ਚੂਹੇ,
ਲੱਭ ਹੀ ਲੈਂਦੇ ਹਾਂ
ਹਰ ਕੁਜ ਚਿਰ ਨੂੰ
ਆਪਣਾ
ਪਾਇਡ ਪਾਈਪਰ
ਬਰਗਲਾ ਕੇ ਲੈ ਜਾਣ ਲਈ
ਸਾਨੂੰ
ਸੁੱਟਣ
ਵਿਚ
ਨਿਰਵਾਣ ਦੇ ਖੂ।
ख़ुशक़िस्मत हैं
हम
कितने
हैमलिन के चूहे,
ढूँढ ही लेते हैं
हर कुछ समय में
अपना
पाइड पाइपर
बरगला कर ले जाने हमें
फेंकने
बीच
निर्वाण के कूएं
बामुश्किल
की थी
जान मानस ने
जनतंत्र की क्रान्ति
छोड़
खेत खलिहान
घर परिवार,
ये कहाँ से
आ गया
फिर
कोई
"मसीहा" बनने!
ਅੱਖਰਾਂ ਨਾਲ
ਪੇਟ ਨਹੀਂ ਭਰਦਾ
ਚੰਦਰੀ ਭੁੱਖ
ਭੁੱਲ ਜਾਂਦੀ,
ਰੋਟੀ ਨਾਲ
ਪੇਟ ਭਰ ਜਾਂਦਾ,
ਰੂਹ
ਭੁੱਖੀ ਸੌਂ ਜਾਂਦੀ,
ਦੋ
ਫੱਕੇ ਕਣਕ ਦੇ,
ਚਾਰ ਲਫ਼ਜ਼ ਦੇ
ਬੰਦ,
ਹੋਰ ਕੀ ਚਾਹੀਦਾ
ਫ਼ਕੀਰ ਨੂੰ,
ਨਾ ਤਾਰੇ
ਨਾ ਚੰਦ!
ਦੇਸ਼ਭਕਤ ਵੀ
ਦੇਸ਼ਭਕਤਾਂ ਨੂੰ
ਹੁਣ
ਆਪਣੀ ਜਮਾਤ ਦਾ
ਚਾਹਿਦੈ!
ਕਿਥੇ ਜਾਣ
ਓ
ਭਗਤ ਸਿੰਘ
ਇਨਕਲਾਬ ਵਾਸਤੇ
ਜਿੰਨ੍ਹਾਂ ਨੂੰ
ਹਰ ਮੈਦਾਨ
ਇਕ ਰਾਜ ਗੁਰੂ
ਸੁਖ ਦੇਵ
ਅਸ਼ਫਾਕਉੱਲਾਹ ਚਾਹਿਦੈ...
देशभक्त भी
"देशभक्तों" को
अब
अपनी जमात का
चाहिए!
कहाँ जायें
वो
भगत सिंह,
इंकलाब के लिए
जिन को
हर मैदान
एक राजगुरु
सुखदेव
अशफ़ाक़ उल्लाह चाहिए।
सरकाओ उन पेड़ों को ज़रा
कुछ बायें
नज़र तो आयें,
उतारो चाँद को
एक हाथ नीचे
और न शरमाये,
बिखेरो ज़रा
बादलों के बाल
लगें कुछ और नशीले,
पर्बतों से कहो
बढ़ा कदम
मेरे क़रीब आयें,
खड़ा हूँ
कब से
अकेला
अपने फ़्रेम में,
तक़दीर से कहो
भरे रंग
बहार लाये।
यही सोच कर
मेरी ज़ुबान नें
मेरे मुआफ़ीनामे
के अहद पर
दस्तख़त न किये,
मेरी फ़ितरत पर
मेरी ही रूह को
यक़ीन न था...
पछतावे
धोखे
डर
मजबूरियाँ
ग़लतफ़हमियाँ
अरमान
संगीत
निर्वाण,
ज़रा
हिला के तो देख
वो शक़्स
किस शै से
भरा है।
ਸੀਨੇ ਵਿਚ ਸਾਹ
ਧਮਨਿਆਂ ਵਿਚ ਖੂਨ
ਬਿਰਤੀ ਵਿਚ ਖ਼ਯਾਲ
ਹੁਣ
ਕਿੱਥੇ ਹੋਵੇਗਾ,
ਕਿੱਥੇ ਰੇਹਾ ਹੋਵੇਗਾ
ਓ
ਕਵੀ,
ਆਪ ਹੀ
ਹੁਣ ਤਾਂ
ਕਵਿਤਾ
ਹੋਵੇਗਾ!
ਕੀਤੇ ਸੀ
ਤਰਲੇ
ਬਥੇਰੇ
ਕਿ ਲੈ ਜਾਵੀਂ
ਘੁਮਾਣ
ਵਿਦੇਸ਼
ਜਾਵੇਂਗਾ ਜਦੋਂ ਵੀ,
ਛੱਡ ਜ਼ਮੀਨ ਤੇ
ਮਿੱਟੀ ਦਾ ਬੁੱਤ
ਉਡ ਗਯਾ
ਨਿਰਮੋਹੀ
ਕੱਲਾ
ਤਾਰੇਆਂ ਦੇ ਦੇਸ਼
ਤਾਪ ਦੇ ਓਹਲੇ ਓਹਲੇ...
ਪਾਣੀ
ਅਜੇ ਵੀ ਏ
ਲੋੜ ਨਾਲੋਂ ਵੱਧ
ਗਲੇਸ਼ਿਅਰਾਂ
ਪਰਬਤਾਂ
ਝਰਨੇਆਂ
ਨਦਿਆਂ
ਤਲਾਬਾਂ
ਬੌਡਿਆਂ
ਟੈਂਕਾਂ
ਅਤੇ ਬਰਕਤਾਂ ਦੀ
ਪਾਇਪਾਂ ਵਿਚ,
ਲਾਲਚ ਦੇ ਹੱਥੋਂ
ਹੋ ਗਇਆਂ ਨੇਂ
ਚੋਰੀ
ਸੋਨੇ ਦੀ ਟੂਟਿਆਂ,
ਮਿੱਟੀ ਦੇ ਸੰਗੇ
ਰੇਗਿਸਤਾਨ ਨੇਂ।
शायद
इसी सबब से
उठता है
आये दिन
शहर में
कोई न कोई,
जायें
बीस पचास
साथ
देखने
अंतिम सच्चाई,
याद रहे।
गौ सी
बच्चियों
के भी रक्षकों के
बनें बॉयोमीट्रिक्स पहचान पत्र
माँग है मेरी,
झाँक
पुतलियों में
सब की,
पढ़ी जाये मस्तिष्कों में
मानसिकता,
अँगूठों उंगलियों की
ले छाप
एहतियातन रखी जाये।
आपके
जश्न
के ताप में
ठंडक
क्यों नहीं,
सुनिश्चित
कर लीजिए
आज़ाद हैं आप,
भूरे अंग्रेज़ के
ग़ुलाम तो नहीं!
कहाँ से निकला तीर
कहाँ कहाँ से हो
कहाँ जा लगा,
करे कौन
घबराई रूह से न्याय
न हुई
जिसे पुष्टि
एक युग तक,
कि उसकी सोच की देह को
कहाँ और कितना
लगा, न लगा।
यही सोचकर
निकलते हैं
दबे पाँव
उतार मन्शा की जूती
ओढ़ गुमशूदगी का कम्बल,
गली से आपकी
बेक़सूर
बूढ़े
मजबूर
लफ़्ज़
रात के पिछले पहर,
कहीं पड़ गई जो
आपकी
निरुक्ति भरी नज़र
तो पूरी
कहानी जायेगी।
इतना न ले
दिल पर
अंधेरी रात का
एहसान
ऐ चाँद,
कि दब कर
फीका तारा हो जाये,
इसी गर्ज़ से
फैली थी
स्याही
कि तेरे पैग़ाम में
कुछ चमक आये!
छोटू,
सीधा हो कर बैठ
वो सामने
उस कैमरे के पीछे
भगवान है,
ला मुस्कुराहट
चेहरे पर अपने,
न लगे उसे
कि हम
उससे
नाराज़ हैं...
पूछे,
तो कहना
हम
उसके रंगमंच के हैं
बाल कलाकार,
उसकी
सलाम बॉम्बे
स्लमडॉग का
इंतज़ार है!
कुत्तों की क़िस्मत को
सलामत हैं
न जाने कितने
मालिक,
उनकी रोज़ी
रोटी
रोटियों को पकाने और खाने वाले परिवार,
बची रोटियों की बरकतें
बची रोटियाँ रखने को डयोढियाँ,
डयोढियों को छाँव देती छतें,
छतों को सलामत रखती
कुत्तों की आस की
दीवारें!
धोबी की तरह न यूँ सिल पर पटक मुझे,
धो बेशक मल मल कर जितना तू चाहे,
यूँ न कर तार तार मुझे!
यूँ ही सुन ले जो गीत सुनने की चाह है तेरी,
दर्द पहले से है सराबोर तबीयत में मेरी,
और न दे!
दिखा दिखा कर उठाई है ज़िंदगी दस्तरख़ान से मेरे,
कर बे आबरू चाहे जितना
मगर दाम तो दे,
है तू शाहों का शाह जानते हैं सब,
मैं भी तो हूँ मस्ताना,
दाद तो दे,
हुआ होगा तुझे इस सब से जाने क्या हासिल,
मेरा क्या क्या खोया,
हिसाब तो दे,
किस क़याम^ से निकला था किस क़यास^^ को,
इस अंजाम से मुख़ातिब हूँ मैं
किस हिसाब से?
^कल्पना ^^ठहराव
रात काटने के लिए
पूछते हैं
मुसाफ़िर
गुरुद्वारा साहिब की राह
तो बताता हूँ
इस मलाल से
कि काश
पूछता
कोई
किसी रोज़
उम्र गुज़ारने
के लिए!
दोनों थे मज़दूर
पर एक नहीं था,
मुश्किलों में था दोनों का जीवन
दुःखी मगर एक नहीं था,
थे दोनों वक़्त के मारे
मुरझाया एक था
दूसरा नहीं था,
था एक
बस
झुझारू इंसान,
दूसरा
केवल इतना नहीं था,
मुस्कुराता था दिन भर
देख इलाही की मर्ज़ी,
"ख़ुदा का बन्दा"
ख़िताब कम तो नहीं था!
देश की मिट्टी में
जहाँ जहाँ
जितनी भी
सूखी
छिपी
बेहिसाब
दरारें हैं,
रहते हैं
उनमें
सबसे ओझल
कितने देशवासी
जो किसी राशन कार्ड
आधार
पैन
फ़ैरिस्त
गिनती न आते हैं,
हैं वो
अगरचे
यहीं के बाशिंदे,
मगर
साँझे आसमाँ से बाहर
बिन पंखों के परिंदे...
बहुत मुमकिन था
देश की
जी डी पी
आज
कुछ
कम हो जाती,
काम आ जाते
देश के
चंद
आर्थिक
जंगजू,
जब चढ़ा दी
मैंने
अपनी कार
इमारत की बेसमेंट में
उन्हीं ईंटों पर
जिन पर बैठ
खेल थे रहे वो सब
जुआ,
बस शुक्र है
उनके
हार जीत कर
जा चुकने के बाद!