यही सोचकर निकलते हैं दबे पाँव उतार मन्शा की जूती ओढ़ गुमशूदगी का कम्बल, गली से आपकी बेक़सूर बूढ़े मजबूर लफ़्ज़ रात के पिछले पहर,
कहीं पड़ गई जो आपकी निरुक्ति भरी नज़र तो पूरी कहानी जायेगी।
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