Monday, August 14, 2017

दबे पाँव

यही सोचकर
निकलते हैं
दबे पाँव
उतार मन्शा की जूती
ओढ़ गुमशूदगी का कम्बल,
गली से आपकी
बेक़सूर
बूढ़े
मजबूर
लफ़्ज़
रात के पिछले पहर,

कहीं पड़ गई जो
आपकी
निरुक्ति भरी नज़र
तो पूरी
कहानी जायेगी।

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